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चौथा हिस्सा
 

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चौथा हिस्सा उनकी तरफ देखने लगे । दिग्विजयसिंह ने जिस ढंग से ऊपर लिखी बातें कही उनमे से सचाई की चु अाती थी । वीरेन्द्रसिंह चहुत खुश हुए और दिग्विजयसिंह को अपने पास बैठा कर बोले :--- | वीरेन्द्र० } सुनो दिग्विजयसिंह, हम तुम्हें छोड़ देते हैं और रोहतासगढ़ की गद्दी पर अपनी तरफ से तुम्हें बैठाते हैं, मगर इस शर्त पर कि तुम हमेशे अपने को हमारा मातहत समझो और खिरजि की तौर पर कुछ मालगुजारा दिया करो । | दिग्वि० । में तो अपने को अपका ताबेदार समझ चुका अब क्या समझे गा; बाकी रही रोहतासगढ़ की गद्दी, सो मुझे मजूर नहीं । इसके लिये आप कोई दूसरा नायब मुकर्रर कीजिये और मुझे अपने साथ रहने का हुक्म दीजिये । वीरेन्द्र० । तुमसे बढ़ कर और कोई नायब रोहतासराट के लिए मुझे दिपाई नहीं देता है। | दिग्वि० ! ( हाथ जोड़ कर ) बस मुझ पर कृपा कीजिये, अब राज्य का जंजाल में भर्ह उठा सकता । प्राधे घण्टे तक यही हुज्जत रही । वीरेन्द्रसिंह अपने हाथ से रोहतास गढ़ की जद्दों पर दिग्विजयसिंह को वैठाया चाहते थे और दिग्विजयसिंह इन्कार करते थे, लेकिन आखिर लाचार होकर दिग्विजयसिंह को वीरेन्द्रसिंह की हुम मजूर करना पड़ा, मगर साथ ही इसके उन्होंने वीरेन्द्रसिंह से इस वत का एकरार कर लिया कि महीने भर तक आपको मेरा मेहमान बनना पड़ेगा और इतने दिनों तक रोहतासगढ़ में रहना पड़ेगा । | घोरेन्द्रसिंर ने इस बात को खुशी से मजूर किया क्योंकि रोहतासहि के तने का हाल उन्हें बहुत कुछ मालूम करना था ! बीरेन्द्रसिह श्रीर तैसिंह को विश्वास हो गया था कि वह तहखाना जरूर कोई तिलिस्म है। गजा दिग्विजयसिद्द नै थि जोड कर तेजसिंह की तरफ देखा और रा, “कृपा कर मुझे समझा दजिये कि आप और आपके मातहत