पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/२५६

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चौथा हिस्सा
 

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گاو चौथा हिस्सा । ज्योतिषी० | बस यही वह ताज्जुब की बात है जो अब मैं आपसे कहता हु । ते० | चहिये, जल्द कहिये । योतिप० । एक दफे रोहतासगढ़ के तहखाने में बैठे बैठे मेरी 1वीवत पाई तो में कोटडियो को खोल खोल कर देखने लगा । उस काली के झये में जो मेरे हाथ लगा था एक ताली सब से बड़ी है जो तहखाने की सत्र कोठडियों में लगती है मगर वाकी बहुत सी तालियो का पता मुझे अभी तक नहीं लगा कि कहीं की हैं ।। तेन० । पैर तब क्या हुआ ? गतियो० | सब कोठडियों में अन्धेरा था, चिराग ले जा कर में यहा तक देखता, मगर एक कोठरी में दीवार के साथ चमकती हुई कोई चीज दियाई दी । यद्यपि कोठडी में बहुत अन्धेरा था तो भी अच्छी तरह मालूम हो गया कि वह कोई तस्वीर है। उस पर ऐसा मसाला लगा हुअा था कि अन्धेरे में भी वह तस्वीर साफ मालूम होती थी, अखि कान नाक बकि बाल तक साफ मालूम होते थे। तस्वीर के नीचे ‘लाली ऐसा लिखा हुआ था । मैं बडी देर तक ताज्जुब से उस तस्वीर को देखता २, शरिर कोही बन्द कर के अपने ठिकाने चला आया, उसके बाद अग्निशोरी के साथ मैने लाली को देखा तो साफ पहिचान लिया कि वह् तस्वीर इसी की है। मैंने तो सोचा था कि लाली उसी जगह की रहने वाली हैं इसी लिए उसकी तस्वीर वहा पाई गई, मगर इस समय महाराज दिग्विजय सिंह की जुगनी उसका हाल सुन कर ताज्जुब होता है, गाली ग्रह चहा की रहने वाली नहीं तो उसकी तस्वीर चहा कैसे पहुची १ दिग्वि० । मैंने अभी तक वह तस्वीर नहीं देखी, ताज्जुब है ! वीरेन्द्र० । अभी क्या, जब मैं अपको साथ लेकर अच्छी तरह उस दलाने की छानवीन कला तो बहुत सी बातें ताज्जुब की दिखाई पर्दैन ।