पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/२६०

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चौथा हिस्सा
 

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चौथा हिस्सा तेज । अवे ग्राप क्या सोचते हैं उसका कोई कलुर था या नई ? दिव० । नहीं नहीं, वह बिल्कुल बेकसूर था, बल्कि मै ही भूल धौ जिसके लिये श्राज में अफसोस करती हैं, ईश्वर करे उसका पता लग जाय तो में उससे अपना कसूर माफ कराऊँ । तेज ० (यदि श्राप मुझे कुछइनाम दे ती में शेरसिंह का पता लगा है। दिग्३ि० | अपि जो मार्ग में दूगा और इसके अतिरिक्त श्रापका भारी अहसन मुझ पर होगा । जि . 1 वेस में यही इनाम चाहता हूं कि यदि शेरसिंह को दें है र ने ग्राऊ तो उसे अाप इमारे राजा बीरेन्द्र सिंह के हवाले कर दें । एम उसे अपना साथी बनाना चाहते है ।। | दिग्वि* 1 मैं खुशी से इस बात को मन्जूर करता हूँ वादा करने की क्या जरूरत हैं जब कि में स्वयम् राजा वीरेन्द्रसिंह ॥ तादार हूँ। | इसके बाद तेजसिंह ने उस नकाबपोश की तरफ देखा जो उनके पनि ३ठा हुआ था और जिसे वह अपने साथ इस कमेटी में लाये थे । नहायपोश ने अपने मुंह पर से नकाब उतार कर फेंक दिया और यह इतो हुआ राजा दिग्विजयसिंह के पैरों पर गिर पड़ा कि 'आप मेरा कसूर * * ।' राजा दिग्विजयसिंह ने शेरसिंह को पहिचाना, बड़ी खुशी से टाकर गले लगा लिया और कहा, नहीं नही, तुम्हारा कोई कसूर नहीं बल्कि मेरा कसूर हैं जो मैं तुमसे क्षगा कराया चाहता हूँ ।' शेरसिंह तेजसिंह के पास ग्रा चैटा । तेजसिंह ने कहा, “सुनो शेरसिंहू; अब तुम इमार हो चुके ! | शैर० । बैठक में श्राप का हो चुका, जय छापने महाराज से वचन ले लिया तो अब क्या उर्ज हो सकता है ! । उता बीरेन्द्रसिंह ताज्जुब से ये बातें सुन रहे थे, अन्त में तेजसिह की तरफ देख कर चौले, तुम्हारी मुलाकात शेरसिंह से कैसे हुई ?