पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/३३

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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तति सुरेन्द्र० । कुल मुस्कुरा कर और उम्मीद भरी निगाहों से जीतसिंह की तरफ दे कर ) वैर, जो मुनासिब ममीको ।। जीत० } ( देव मिह से ) लीजिए साहवे, असे आपको भी पुरानी कसर निकालने का मौका दिया जाता है, देखें आप क्या करते हैं ! ईश्वर इस मुस्तेदो को पूरा करें ।। | इतना सुनते ही देवीसिंह उठ खड़े हुए और सलाम कर कमरे के बाहर चले गए। सातवां बयान अपने माई इन्द्रजीतसिंह की जुदाई से व्याकुल हो उसी समय आनन्द सिंह उम जगल के बाहर हुए और मैदान में खड़े हो इधर उधर निगाह दौड़ाने लगे । पश्चिम तरफ दो औरतें घोड पर सवार धीरे धीरे जाती हुई दिखाई पड़ा । ये तेजी के साथ उस तरफ बढे और उन दोनों के पास पहुँचने की उम्मीद में दो कोस तक पीछा किए चले गए मगर उम्मीद पूरी न हुई क्योंकि एक पहाड़ी के नीचे पहुंच कर चे दोनों रुकी और अपने पीछे अाते हुए अनन्दसिंह की तरफ देख घोड़े को एक दम तेज कर पाटी के बगल में घूमती हुई गायब हो गई है। तू खिली हुई चाँदनी रात होने के समय से आनन्दर्भिह को ये दोनों रिते दिखाई पदी र उन्होंने इतनी हिम्मत भी की, पर पहाटी के पास पहुचते ही उन दोनों के भाग जाने से इनको वा ही रञ्च हुश्रा । खड़े हो कर मोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए । इनकी हैरान शौर सोचते हुए चोट कर निर्दयी चन्द्रमा ने भी धीरे धीरे अपने घर का रास्ता लिया और अपने दुश्मन को जाते देत मौका पाकर अन्धेरे ने चारो तरफ दुमत 'जमाई । शानन्दसि श्रीर भी दुरजी ए ! क्या करें ? कहाँ जाप ? किमले पूलें कि इन्द्रजीत िको कौन ले गया ? दूर से एक रोशनी दिखाई पड़ी। गौर करने से मालूम हुआ कि किसी