पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/३६

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पहिला हिस्सा
 

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39 पहिला हिस्सा अानन्द० । हाँ, बल्कि कसम खा कर ! श्रीरत० | देखो पछताओगे शीर मुझ सी चाहने वाली कभी न पाओगे ! ग्रानन्द० 1 ( अपना हाथ छुड़ा कर ) लानत है ऐसी चाह पर } औरत० । तो क्या तुम यहाँ से चले जाओगे ? अनिन्द० } जरूर ! औरत० } मुमकिन नहीं ।। आनन्द० | क्या मजाले कि तुम मुझे रोको ! श्रीरत० } ऐमा खयाल भी न करना ।

  • देखें मुझे केन रोकता है !" कह कर नन्दसिंह उसे कमरे | के बाहर हुए श्रीर उसी कमरे को एक खिडकी जो दोबार में लगी हुई यी रोल ३ श्रीरते वहाँ से निकल गई ।।

अानन्दसिंह इस उम्मीद में चारों तरफ घूमने लगे कि कहीं रास्ता | मिले तो बाहर हो जायं मगर उनकी उम्मीद किसी तरह पूरी नहीं हुई ।। यः मकान बहुत लम्बा चौडा न था । सिवाय इस कमरे और एक | सरन के और कोई जगह इसमें न थी ! चारो तरफ ऊ ची ऊंची दीवारों के सिवाय बाहर जाने के लिए कहीं कोई दुर्वाजा न था | हर तरह से | लाचार और दुःरी हो फिर उसी पत्नग पर श्री लेटे और सोचने लगे-- । “अब म्या करना चाहिए ? इस कम्बख्त से किस तरह जान बचे ? यह तो हो ही नहीं सकता कि में इसे चाहूं या प्यार करें ! राम रमि, मुसलमानिन से और इश्क ! यह तो सपने में भी नहीं होने का । | तब फिर क्या करू ? लाचारी है, जब किसी तरह छुट्टी न देखें या तो | इसी खञ्जर से जो मेरी कमर में हैं अपनी जान दे देंगी । कमर से खञ्जर निकालना चाहा, देखा तो कृमर खाली है । फिर सोचने लगे--- | गजब गया। इस हरामजादी ने तो मुझे किसी लायक न रक्खा। | अगर कोई दुश्मन आ जाय तो में क्या कर सकूगा । वेश्या अगर मैरे