पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/४०

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पहिला हिस्सा
 

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पहिला हिस्सा हूं जिसके खाने पीने से श्राप उज़ न करें । पलंग पर से उठिये, बाहर श्राइये । श्रानन्दसिंह उसके साथ बाहर गये । सिपाही ने लोटा जमीन पर रख दिया और झोले में से कुछ मेवा निकाल उनके हाथ में दे श्रौला, लीजिये इसे खाइये और ( लोटे की तरफ इशारा करके ) यह दूध है। पीजिये !,, श्रानन्दसिंह की जान में जान आ गई, प्यास और भूख से दम निकला जाता था, ऐसे समय में थोड़े मेवे और दूध का भिल जाना स्या थोटी खुशी की बात है ! मेवा खाया, दूध पंथ, जी ठिकाने हुश्रा, इसके बाद उस सिपाही को धन्यवाद देकर बोले, “अब मुझे किसी तरह इस मकान के बाहर क,जिये ।। सिपाही० } में आपको इस मकान के बाहर ले चलू गा मगर इसकी मजदूरी भी तो मुझे कुछ मिलनी चाहिये ।। आनन्द । जो कहिए दुगा । सिपाहो ० । आपके पास क्या है जो मुझे देंगे ? अानन्द० । इस वक्त भी हजारों रुपये का माल मेरे बदन पर है। सिपाही । मैं यह सत्र कुछ नहीं चाहता है। अनन् । फ्रि १ भिषाही० | उसी कम्बख्त के वृदन पर जो कुछ जेवर है मुझे दीजिये और एक हजार अशर्फी ।। ग्रानन्द० । यह कैसे हो सकेगा ? वह तो यहा मौजूद नहा है, और इजर अशफ भी कहा से ग्रावे । । सिपाही । उसी से लेकर दीजिये । आनन्द । क्या वह मेरे कहने से देगी ? सिपाहो ० ।( हस कर ) वह तो आपके लिये जान देने को तैयार है इतनी रकम की क्या विसाव है ।।