पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/४२

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पहिला हिस्सा ४७ पढने पर क्या कर सकेंगे ? मेरे पास एक खञ्जर और एक नीमचा है, दोनों में से जो चाहें एक श्राप ले लें। अनिन्द० । बस नीमचा मेरे हवाले कीये और चलिए ! आनन्दसिंह ने नीमचा अपनी कमर में लगाया और सिपाही के साथ पैदल ही उस तरफ को कदम चढ़ाते चले जिधर चह खूनी औरत वक्त हुई चली गई थी । ये दोनों ठीक उसी पगड़ी रास्ते को पकड़े हुए थे जिस पर वह औरत गई थी । थोडी थोडी दूर पर रुकते और सास रोक कर इधर उधर की आहट लेते, जच कुछ मालूम न होता तो फिर तेजी के साथ बढ़ते चले जाते थे । कोस भर के बाद पहाडी उतरने की नौबत पहुची, वहा ये दोनो फिर रुके और चारो तरफ देखने लगे । छोटी सी घटी बजने की आवाज आई 1 घंटी किसी खोह या गदहे के अन्दर बजाई गई थी जो वहा से बहुत करीब था जहा वे दोनो बहादुर खड़े हो इधर उधर देख रहे थे। ये दोनों उसी तरफ मुई जिधर से घंटी की श्रीवाज आई थी । फिर अवाज आई। अब तो ये दोनों उस खोह के मुह पर पहुंच गये जो पहाडी की कुछ दाल उतर कर पगडण्डी रास्ते से बाई तरफ हट कर थी और जिसके अन्दर से घंटी की आवाज आई थी । बेधडक दोनो आदमी खोइ के अन्दर घुस गये । अब फिर एक वरि घण्टी बजने की आवाज आई और साथ ही एक रोशनी भी चमकती हुई दिखाई दी जिसकी वजह से उस खोह का रास्ता साफ मालूम होने लगा, बल्कि उन दोनों ने देखा कि कुछ दूर आगे एक औरत खुडी है जो रोशनी होते ही बाई तरफ हट कर किसी दूसरे गड़हे में उतर गई जिसका नास्ता बहुत छोटा बल्कि एक ही श्रादमी के जाने लायक था । इन दोनों को विश्वास हो गया कि यह वहो औरत है जिसकी खोज में हम लोग इधर आये है । रोशनी गायब हो गई मगर अन्दाज से टटोलते हुए ये दोनो भी