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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तति अनिन्द० । (कमर से नीमचा निकाल कर ) वाह, क्या चलना है । में विना इस आदमी को छुडाए कब टलने वाला हूँ !! औरत० ११ हस कर ) ह धो रखिए । बहादुर वीरेन्द्रसिंह के बहादुर लद्द आनन्दसिंह को ऐसी बातों के सुनने की ताकत कहा १ वह दो चार आदमियों को समझते ही क्या थे ! *मुंह धो दिए ! इतना सुनने ही जोश चढ़ आया । उछल कर एक हाथ नीमचे का लगाया जिससे वह रस्सी कट गई तो उस आदमी के पैर से वे धी हुई थी और जिसके सहारे वह लटक रहा था, साथ ही फुर्ती से उस आदमी को सम्हाला और चीर से जमीन पर गिरने न दिया । अब तो वह सिपाही मी आनन्दसिंह का दुश्मन बन बैठा और ललकार कर बोली, “यह क्या लड़कपन है ।” इम ऊपर लिख चुके हैं कि इस सुर में दो औरतें और एक ह्वशी गुलाम है । अव वह सिपाही भी उनके साथ मिल गया थौर चारो ने अनिन्दसिंह को पकड़ लिया, मगर बाह रे अनिन्दसिंह ! एक झटका दिया कि चारों दूर जा गिरे । इतने ही में बाहर से आवाज आई :-- श्रानन्दसिंह, खबरदार 1 जो किया सौ किया, अब श्रागे कुछ हौसला न करना नहीं तो सजा पायोगे !!” | ग्रानन्दसिंह ने घबडा कर बाहर की तरफ देखा तो एक योगिनी नजर पढी जो जटा बढ़ाए भस्म लगाये गे वस्त्र पहिरे दाहिने हाथ में निग्रन र बाएँ हाथ में आग से भरा धधकता हुआ पप्पर जिसमें फोई खुशबूदार चीज जल रही थी और बहुत धू श्रीं निकल रहा या लिए हुए श्री मौजूद हुई थी । तार में आकर ममी उसकी सूरत देखने लगे । थो ही देर में उसे उपर से निकला हुशा धू श्री सुरज का कोटडी में भर गया और उसके ममेर में जितने वहाँ थे सभी दोश होकर जमीन पर गिर पड़े ।