पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/५६

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पहिला हिस्सा
 

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पहिला हिस्सा के पानी से हाथ मुह धो फिर चल पड़ी । इसी तरह मोके मौके पर टिकती हुई ये दोनों कई दिन तक वरविर चली गई । एक दिन श्राधी रात तक वरावर चले जाने बाद एक तालाब के किनारे पहुंचीं जो बगल वाली पहाड़ी के नीचे साथ सटा हुआ था । इस लम्चे चौड़े सीन और निहायत खूबसूरत तालाब के चारों तरफ पत्थर की सीढियें और छोटी छोटी वारदरिया इस तौर पर बनी हुई थी जो बिल्कुल जल के किनारे ही पड़ती थी । तालरत्र के ऊपर भी चारो तरफ पत्थर का फर्श और बैठने के लिए हर एक तरफ सिंहासत की तरह चार चार चबूतरे निहायत खूबसूरत मौजूद थे | ताज्जुब की बात यह थी कि इस तालाब के बीच की जाट लकड़ी की जगह पीतल का इतना मोटा बना हुआ था कि दोनों तरफ दो आदमी खड़े होकर हाथ नहीं मिला सकते थे। जाट के ऊपर लोहे का एक बदसूरत आदमों का चेहरा बैठाया हुआ था। । तालाब के ऊपर चारो तरफ बड़े बड़े सायेदार दख्त ऐसे घने लगे हुये थे कि सभी की हालियँ पुस में गुथ रही थी । ये दोनों उस तालावे पर खड़ी होकर उसकी शोभा देखने लगा । थोड़ी देर बाद एक चबूतरे पर बैठ गई मगर मुह तालाब ही की तरफ किए हुए थीं ।। यकायक जाट के पास का पानी खलबलाया और एक आदमी तैरता हुआ जल के ऊपर दिखाई दिया । इन दोनों की टकटकी उसी तरफ ध गई, वह अदमी किनारे या सौर ऊपर की सीढ़ी पर खड़ा हो चारो तरफ देखने लगा | अब मालूम हो गया कि वह औरत है । योगिनी और मनचरी ने चबूतरे के नीचे हो कर अपने को छिपा लिया। मगर उस शौरत की तरफ वरीयर देखती रहीं ।। | उस श्रीरत की उम्र बहुत कम मालूम होती थी जो अभी अभी तालाब से बाहर हो घर उधर सन्नाटा देख हवा में अपनी धोती सुखी रही थी | थोड़ी ही देर में साड़ी सूख गई जिसे पहन कर उसने एक तरफ का रास्ता लियो ।