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चन्द्रकांता सन्तति
 

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५७ चन्द्रकान्ता सन्तति लाचार वह पूरव तरफ थ्राई और अपनी उन सखियों की कार्वाई देखने लगी जो चुन-चुन कर खुशबूदार फूले के गजरों और गुच्छो के बनाने में अपने नाजुक हाथों को तकलीफ दे रही थी । कोई अंगूर की टट्टयों में घुस कर लाल पके हुए अंगूरों की ताक में थी, कोई पके हुए ग्राम तोडने की धुन में उन पेड़ की डालिये तक लग्ने पहुचा रही थी जिनके नीचे चारो तरफ गड़हे खुदवा कर इस लिए जल से भरवा दिये गये थे कि पेड़ से गिरे हुए शाम चुटीले न होने पावें ।। अत्र सूर्य की लालिमा विल्कुल जाती रही और धीरे-धीरे अन्धेरा होने लगा । वह बेचारी किसी तरह अपने दिल को न चला सकी बल्कि अन्धेरे में चाग के चारों तरफ के बड़े बड़े पेड़ों की सूरत डरावनी मालूम होने लगी, दिल की धडकन चढती हो गई, लाचार वह छत के नोचे उतर झाई और एक सजे सजाये कमरे में चली गई । | इस कमरे की सजावट मुख्तसर gी थी, एक झाड़ और दस बारह हाँद्धियाँ छत से लटक रही थीं, चारो तरफ दुशाखी दीवारगीरों में मोमबत्तियाँ जल रही थी, जमीन पर फर्श बिछा हुआ और एक तरफ गद्दी लगी हुई थी जिसके आगे दो फर्शी झाड़ अपनी चमक दमक दिखा रहे | थे, उसके बगल ही में एक मसहरी थी जिस पर थोड़े से खुशबूदार फूल और दो ताने गजरे दिखाई दे रहे थे । अच्छे-अच्छे कपड़ों अौर गहन | से दिमागदार बनी हुई दस वारइ कमसिन छोकरियाँ भी इधर-उधर | पूम घूम कर ताक ( अ ) पर रखे हुए गुलदस्तों में फूलो के | गुच्छे सजा रही थीं। | वह नाजनीन जिसका नाम किशोर था कमरे में आई मगर गद्दी पर न बैठ कर मसहरी पर जा लेटी और अचल ने मुंह कॉप न मालूम न्या सोचने लगी । उन्, करियों में से एक पंखा झलने लगी, बाकी अपने मालिक को उदास दस सुस्त खड़ी हो गई मगर निगाहें सभी की मराह की तरफ ६ थीं ।