पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
७५
चन्द्रकांता सन्तति
 

________________

५५ चन्द्रकान्ता सन्तति माधवी० । (शर्मा कर और सिर नीचा करके) बस रहने दीजिये, ज्यादे सफाई न दीजिए। इन्द्र० ! अच्छी इन बातों को छोड़ और अपने वादे को याद करो । श्रान कौन दिन है ? इस श्रान तुम्हारा पूरा हाल सुने विना न मानूंगा चाहे जो हो, मगर देखो फिर उन भारी कसमों को याद दिलाती हैं जो में कई दफे तुम्हे दे चुका हैं, मुझसे झूठ कभी न बोलना नहीं तो अफसोस करोगी ! | माधव० { (कुछ देर तक सोच कर)अच्छा आज भर मुझे शोर माफ कीजिए, आपसे बढ़ कर में दुनिया में किसी को नहीं समझती और श्राप हीं की शपथ खाकर कहती हैं कि कल जो कुछ पूछेरो सब ठीक ठीक कह दूर, कुछ न छिपाऊँगी । ( आसमान की तरफ देख कर ) अन्य समय हो गया, मुझे दो घण्टे की फुरसते दीजिये ।। | इन्द्र० ( ( लम्बी सास लेकर ) खैर कल ही सही, जाश्री मगर दो घण्टे से ज्यादे न लगाना ।। माधवी उठी और मकान के अन्दर चली गई । उसके जाने के बाद इन्द्रजीतसिह अकेले रह गए और सोचने लगे कि यह माधवी कौन है ? इसका कोई वा बुजुर्ग भी हैं या नहीं ? यह अपना हाल क्यों छिपाती है ? सुबह शाम दो दो तीन तीन घन्टे के लिए कहाँ और किस से मिलने जाती है ? इसने तो कोई शक नहीं कि यह मुझसे मुहब्बत करती है मेरार ताजब है कि मुझे यहा क्यों कैद कर रखा है। चाहे यह् सरतमीन कैसी ही सुन्दर ग्रंर दिल लुभाने वाली क्यों न हो फिर भी मेरी तबीयत यहा से उचाट हो रही है। क्या करें कोई तर्की नहीं सूझती, बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता, यह तो मुमकिन ही नहीं कि पहाड़ी चढ़ कर कोई पार हो जाये, और यह भी दिल नहीं क्यूल करता कि इसे किसी तरह रज कहूँ और अपना मतलब निकाल क्योंकि मैं अपनी जान इस पर न्योछावर कर चुका हूँ ।