पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/६७

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पहिला हिस्सा
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पहिला हिस्सा | ऐसी ऐसी बहुत सी बात को सोचते सोचते इनका जी वेचैन हो गया, घबड़ा कर उठ खड़े हुए और इधर उधर टहल कर दिल बहलाने लगे । चश्मे का जल निहायत साफ था, वीच की छोटी छोटो खुशरगे । ककढियाँ और तेजी के साथ दौडती हुई मछलियों साफ दिखाई पड़ती था, इसी की कैफियत देखते देखते किनारे किनारे जाकर दूर निकल गये और वहाँ पहुँचे जहाँ तीन चश्मो का संगम हो गया था और अन्दाज से ज्यादे आया हुशा जल पहाड़ी के नीचे एक गड़हे में गिर रहा था । एक बारीक वाले इनके कान में आई । सर उठा कर पहाड की तरफ देखने लगे । ऊपर पन्द्रह वीस गज की दूरी पर एक औरत दिखाई पडी जिसे अब तक इन्होंने इस हाते के अन्दर कभी नहीं देखा था । उस आरत ने हाय के इशारे से ठहरने के लिए कहा तया ढोकों की आड़ में जहाँ तक बन पड़ अपने को छिपाती हुई नीचे उतर आई ओर अड़ देकर इन्द्रजीतसिंह के पास इस तरह खड़ी हो गई जिसमें उन नौजवान - छोकड़ियो में से कोई इसे देखने न पावे जो यहाँ की रहने वालियाँ चारी तरफ घूम कर चुहलशजी में दिल बहला रही हैं और जिनका कुछ हाल म ऊपर लिख अाये है ।। | उच्च श्रीरत ने एक लपेटा हुया कागज इन्द्रजीतसिंह के हाय में दिया । इन्होंने कुछ पूछना हा मगर उसने यह कह कर कुमार का मुह बन्द कर दिया कि 'बस जो कुछ है इसी चींटी से आपको मालूम हो नायगा, में यानी कुछ कहना नहीं चाइतो र न यहाँ ठहरने का मौका है क्योंकि अगर कोई देश लेगा तो म श्राप दोनें ऐसी ग्राफत में फस जायगे कि जिससे छुटकारा मुश्किल होगरे । मैं उसी की लडी हूँ जिसने यः चीटी पिके पास भेजी है। उसकी बात को इन्द्रतसिह क्या जवाव देंगे इसका इन्तचार न करके व ग्ररित पहाड़ी पर चढ़ गई और चालीस पचास हाय जो एक गई में घुम पर न मालूम कहाँ लोप हो गई । इन्द्रजीतसिद्द ताव में