पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
७७
चन्द्रकांता सन्तति
 

________________

१७ चन्द्रकान्ती सन्तति किर खड़े श्राधी घड़ी तक उस तरफ देखते रहे मगर फिर वह नजर न झाई । लाचार इन्होंने कागज खोला और बड़े गौर से पढ़ने लगे, यह - लिखा था हाय ! मैंने तस्वीर बन कर अपने को श्रापके हाथ में सौंपा, मगर आपने मेरी कुछ भो खवर ने ली चल्कि एक दूसरी ही ग्रौरत के १३ में फंस गये जिसने मेरी सूरत बन अापको पूरा धोखा दिया । सद है, वह परीजमाल जत्र अापके बगल में बैठो हैं तो मेरी सुध व्य श्राने लगी है। | आप मेरी ही कसम है, पढ़ने के बाद इस चीठी के इतने टुकड़े कर डालिये। एक अक्षर भी दुरुस्त न वचने पावे ।। अापकी दासी-किशोरी {}} इस चीठी के पढते ही कुमार के कलेजे में एक अजीव धड़कन सी वैदा हुई । घवदा कर एक चट्टान पर बैठ गये और सोचने लगे--- पहिले ही कहता था कि इस तस्वीर से उसकी सूरत नहीं मिलती। चाहे वह कितनी ही हसीन और खूबसूरत क्यों न हो मगर मैंने तो अपने को उसी के हाथ बेच डाला है चिसकी तस्वीर खुशकिस्मती से अब तक मेरे हाथ में मौजूद है। तब क्या करना चाहिये १ यकायक इससे तकरार करना भी मुनासिब नहीं,अगर यह इसी जगह मुझे छोड़ कर चली जाय और अपनी सहेलियों को भी ले जाय तो मैं क्या करूँगा ? अकेले धवड़ाकर सिवाय प्राण दे देने के ग्रौर क्या कर सकता हैं क्योंकि यहाँ से निकलने का रास्ता मालूम नहीं। वह भी नहीं हो सकता कि इन पहाड़ियों पर चढ़ कर पार हो जाऊँ क्योंकि सिवाय ऊँची ऊँची सीधी चट्टानों के चढ़ने लायक रास्ता कहीं भी नहीं मालूम पड़ता । खैर जो हो,शाब में जरूर उसके दिल में कुछ खुट्का पैदा करूँगा नहीं नहीं आने भर अौर चुप रहना चाहिये, झले उसने अपना इल कने का वादा किया ही है, अाखिर कुछ न कुछ झूठ जरूर करेगी यस उसी समय ठोकूगा । इ एक बात और है। ( कुछ रुक कर )