पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
पहिला हिस्सा
७८
 

________________

पहिला हिस्सा ७८ अच्छा देखा जायगा, यह औरत जो मुझे चीठी दे गई है यहा किस तरह पहुँची ? ( पहाडी की तरफ देख कर ) जितनी दूर ऊँचे उसे मैंने देखा था वहाँ तक तो चढ़ जाने का रास्ता मालूम होता है, शायद इतनी दूर तक लोगों की अामदरफ्त होती होगी । खैर ऊपर चल कर देखो तो। सही कि बाहर निकल जाने के लिये कोई सुरंग तो नहीं है ।” | इन्द्रजीतसिंह उस पहाड़ी पर वहाँ तक चढ़ गये जहाँ वह औरत नजर पड़ी थी । इढने से एक सुरङ्ग ऐसी नजर आई जिसमें आदमी बखूबी घुस सकता था । इन्हें विश्वास हो गया कि इसी राह से वह आई थी और बेशक हम भी इसी राह से बाहर हो जायगे । खुशी खुशी उस सुरग में घुसे ! दस बारह कदम अंधेरे में गये होंगे कि पैर के नीचे जल मालूम पडा | ज्यों ज्यों आगे जाते थे जल ज्यादे जान पड़ता था, मगर यह भी हौसला किये बराबर चले ही गये । जव गले वरावर जल में जा पहुँचे और मालूम हुआ कि आगे ऊपर की चट्टान जल के साथ मिली हुई है तैरकर के भी कोई नहीं जा सकता और रास्ता बिलकुल नीचे की तरफ झुकता अर्थात् दाल ही मिलती जाती है तो लाचार होकर लौटे, मगर उन्हें विश्वास हो गया कि वह शौरत जरूर इसी राह से अायी थी क्योंकि उसे गीले कपड़े पहने इन्होंने देखा भी था। चे औरतें जो पहाई के बीच वाले दिलचस्प मैदान में घूम रही थी। इन्द्रजीतसिंह को कहीं न देखकर घबह गयी थोर दोडती हुई उस इवेनी के अन्दर पाँची जिसका जिक्र हम ऊपर कर आये हैं। तमाम मकान छान डाला, वि पना न नगई तो उन्हीं में से एक चेली; “म अब मुर्गा के पास चलना चाहिये, जरूर उसी जगह होंगे 132 अतिर ३ सय ग्री व पचो वहाँ सुरग के ६५ निकल कर गीले कपड़े पहरे इन्द्रनीतम ने कुछ मोच रहे थे । । इन्त भिः यो सोच विचार करते और मुरग में आने जाने दो पदे लग गये 1 रात ६॥ गई थी, द्रमा पहिले हो से निकले हुए थे जिसको