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चन्द्रकांता सन्तति
 

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७६ चन्द्रकान्त सन्तति चाँदनी में दिलचस्प जमीन में फैल कर अजीब समा क्षमा रखा था । दो घंटे बीत जाने पर माधवी भी लौट झायों थी मगर उस मकान में था उसके चारो तरफ अपनी किसी लोडी या सुहेलीको न देख घवटा गई | और उस समय तो उसका कलेजा और भी दहलने लगा जब उसने देखा । कि अभी तक घर में चिराग तक नहीं जला । उसने भी इधर उधर | इन। नापसन्द किया और सीधे उसी सुरंग के पास पहुँची, अपनी सत्र सखिये और लाडियों को भी वह पाया और यह भी देखा कि इंद्रजीतसिंह गीले कपड़े पहने सुरंग के मुहाने से नीचे की तरफ उतर रहे हैं। क्रोध में मरी माधवी ने अपनी सखियों की तरफ देख कर धीरे से कहा, “लनित है तुम लोगों की गफलत पर है इसी लिये तुम हरामखोरियो को मैने यह रक्खा या !! गुस्सा ज्यादा चढ़ शाया या और होंठ कॉप रहे थे इससे कुछ और ज्यादे न कह सकी , फिर भी इन्द्रजीतसिह के नीचे झाले ते तक बडी कोशिश से माधवी ने अपने गुस्से को पचाया ग्रौर घनवटी तौर पर हँस कर इन्द्रजीतसिंह से पूछा, “क्या अप उस नहर के अन्दर गये थे । इन्द्र० 1 हो । | माधवी० । भला यह कौन सी नादानी थी ! न मालूम इसके अन्दर कितने कीड़े मकोड़े सुप बिच्छू होंगे । हम लोगों का तो डर के मारे कभी यहाँ खड़े होने का भी हौसला नही पता ।। | इन्द्र० । घूमते फिरते चश्मे का तमाशा देखते यहाँ तक आ पहुँचे, जी ३ अगि; देखें यह गुफा झिननी दूर तक चली गई है । द अन्दर गये तो पानी में भींग कर लौटना पड़ा। माधी० । और चलिये कपड़े चदलिए ।

  • अन् इन्द्रजीतसिंह का खयाल गौर भी मजबूत हो गया । वह सोचने लगे कि इस सुरंग में जरूर कोई भेद है, तभी तो ये सत्र पढ़ाई दुई यहाँ सा जमा हुई ।