पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/७४

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पहिला हिस्सा
 

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पहिला हिस्सा भघिी की यैह सच कारवाई इन्द्रजीतसिंह देख रहे थे । जब उसने शमादान गुन किया और कमरे के बाहर जाने लगी वह भी अफ्नो चारपाई पर से उठवड़े इए और दवे कदम तथा अपने को हर तरह से छिपाये हुए उसके पीछे रवाना हुए। सोने याने कमरे से बाहर निकल माध से एक दूसरी कोठडी के पास इची भर उस चाभी से जो उसने झेलमारी में से निकली थी उसे कोटरी के ताला खोला मगर श्रअन्दर जाकरे फिरे बन्द कर लिया है कु अर ईन्द्र तिमि इमसेज्यादे कुछ न देख सके और अफरोम करते हुए उसी कमरे की तरफ लौटै जिसमें उनका पलंग था । अभी कमरे के दरवाजे तक पहुचे भी न थे कि पीछे से किसी ने उनके ड़ेि पर हाथै रैप्सर । वे चाके और पीछे पिर कर देखने लगे हैं एक शौरत नजर पड़’ मगर उसे किसी तरह पहिचान न सके । उस औरत ने हाथ के इशारे से उन्हें मैदान की तरफ चलने के लिए कह श्रौर इन्द्रजीतसिंह भ घेखटके उसके पीछे पीछे मैदान में दूर तक चले गये । वह श्रौत ऐक जगह सी हो गई और बोली, “क्या तु मुझे पहिचान सकनै हौ १ इमके जवाब में इन्द्रजीतसिंह ने कहा, “नहीं, तुम्हारी सी पाल शौरत तो आज तक मैंने देखी ही नहीं !! सम; अच्छा था; अरमान पर चादन के टुकड़े इधर उधर घूम रहे थे, चन्म निक, हुशा था जो कभी की बाद में छिप जाती शीर दी ही देर में फिर साफ दिखाई देता । वह शौरत बहुत ही काला थी और उसके कपड़े भी गीले थे । जव इन्द्रजीतसिंह उसे न पहिचान सके तब उसने अपना बाजू खोला और एक जख्म का दाय उन्हें दिखा कर फिर पूछा, “क्या अब भी तुम मुझे नहीं पहिचान सकते हैं। ६द्रजात० {( खुश हो कर ) क्या मैं तुम्हें चाची कह कर पुकार 1कता हैं ? ' प्रौरत० । इ बेशक पुकार सकते हैं ।