पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
चन्द्रकान्ता सन्तति
९०
 

________________

चन्द्रकान्ता सन्तति चीत से रही थी सौ तो मालूम न हुआ मगर उनके हाव भाव से मुहब्बत दी निशानी पाई जाती थी । थोड़ी देर के बाद दोनों पलग पर सो रहे । उमा मर्मय कुथर इन्द्रजीतसिंह ने चाहा कि ताला खोल कर उस कमरे में पचे और उन दोनों नालायकों को कुछ सजा दें मगर काली औरत ने ऐसा करने से उन्हें रोका और कहा, “खबरदार, ऐसा इरादी भी करना नहीं तो दृमारा बना बनाया खेल बिगड़ जायगर श्रौर बड़े बड़े हमलों के पहाड मिट्टी में मिल जायगे, बस इस समय सिवाय वापस चलने के शौर कुछ मुनामिय नहीं है। | काली शौरत ने तो कुछ कही लाचार इन्द्रजीतसिंह को मानना और वहा से लौटना ही पडा } उसी तरह ताला खोलते और बन्द करते बरा र चले गए और उस कमरे के दबाजे पर पहुंचे जिसमें इन्द्रजीतसिंह सोया करते थे। कमरे के शुन्दर न जा कर फाली अौरत इन्द्रजातसिंह को मैदान में ले गई और नहर के किनारे एक पत्थर की चट्टान पर बैठने बाद दोनों में यों बातचीत होने लगी : इन्द्र० । तुमने उस कमरे में जाने से व्यर्थ ही मुझे रोक दिया ! शौरत० | ऐसा करने से क्या फायदा होता है यह कोई गरीब कगाल का पर नहीं है बल्कि ऐसे की अमलदारी है जिसके यहां इजा बहादुर श्रीर एक से एक लटके मौजूद हैं। क्या विना गिरफ्तार हुए तुम निकल जाते ? कभी नही ! तुम्हार यह सोचना भी ठीक नहीं है कि जिस राई से में मारी जाती हैं उसी राह में तुम भी इस सरजमीन के बाहर हो लाग्रीगे, क्योंकि वह रह सिर्फ हम लोगों के आने जाने लायक है तुम उगरौं किस तरह नहीं जा सकने, फिर जान बूझ कर अपने को श्राफत में पाना बौन सी बुद्धिमानी थी ! इन्ट्र० १ म्त्य। जिस राई से तुम श्वाती जाती है। उससे में नहीं हो र० । फमा नहीं, इसका प्रयोल भी न करना ।