पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

पहिला हिस्सा इन्द्र० । सो क्यों ? श्रौरत० | इसका सबब भी जल्दी है। मालूम हो जायगा । इन्द्र० । पैर तो अब क्या करना चाहिये १ औरत० । अब तुम्हें सन्न करके दस पन्द्रह दिन अौर इसी जगह रहना मुनासिब है। इन्द्र० । अव में किस तरह उम बदकार के साथ रह सकेंगा ! श्रौरत० । जिस तरह भी हो सके । इन्द्र० । वैर, फिर इसके बाद क्या होगा ? शौरत० । इसके बाद यही होगा कि तुम सहज ही में इस खोह के वाहर ही न gो जाशोगे ब िक एक दम से यहाँ का राज्य ही तुम्हारे कन्ने में आ जायरः ।। इन्द्र० । फ्या वह कोई राजा था जिसके पास माधवी वैठी थी ? औरत० | नहीं, यह राज्य माधवी का है और वह उसका दीवान था । इन्द्र० | माधवी तो अपने राज काज को कुछ भी नहीं देखती ! औरत० | अगर वह इसी लायक होती तो दीवान की खुशामद क्यों करती है इन्द्र० | इस हिसाब से तो दीवान ही को राजा कहना चाहिए ? श्रीरत० । बेशक ।। इन्द्र० । खैर, अब तुम क्या करोगी १ । औरत० | इसके बताने की अभी कोई जरूरत नहीं, इस बारह दिन यदि मैं तुमसे भिलँगी श्रीर जो कुछ इतने दिनों में कर सकेंगी उसका हाल कहूँगा, बस अच में जाती हूँ, तुम अपने दिल को जिस तरह हो सके सम्हालो र माधवी पर किसी तरह यह मत जाहिर होने दो कि उसका भेद तुम पर खुज गया था तुम उससे कुछ र हौ, इसके बाद देखना कि इतना बड़ा राज्य कैसे सहज ही में हाथ लगता है जितका मिलना हजारों सिर करने पर भी मुश्किल है।