पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/९१

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चन्द्रकान्ता सन्तति
 

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चन्द्रकान्ता सन्तति घो ही पर सवार होकर साथ साथ चल रही हैं ?” जिसके जवाब में कमला सिर्फ ‘जी हाँ कई कर चुप हो रही ।। अब रास्ता खराब और पथरीला श्रीने सगा, पहियों के नीचे पत्थर के छोटे छोटे ढोक के पष्टने से रथ उछलने लगा जिसकी धमक से किशोरी के नाजुक बदन में दर्द पैदा हुआ । किशोरी० ! औफ श्रे, अन तो बड़ी तकलीफ होने लगी है। | कमला० | थोडी दूर तक रास्ता खराब है, आगे •हम लोग अच्छी सड पर जा पहुँचेगे | किशोरी० | मालूम होता है हम लोग सीधी और साफ सड़क छोड किसी दूसरी ही तरफ से जा रहे हैं। कमला० । जी नहीं । किशोरी० | नहीं क्या ? जरूर ऐसी ही है । कमज़ा० 1 अगर ऐसा भी है तो क्या बुरा हुा १ हम लोगों की खोज में जो निकलेगे वै पा तो न सकेंगे १ । किशोरी० } { कुछ सोच कर ) खैर जो किया अच्छा किया मगर रथ का पर्दा तो उठा दो, जरा हवा लगे और इधर उधर की कैफियत देखने में श्रावे, रात का तो समय है। लाचार होकर अमला ने रथ का पर्दा उठा दिया और किशोरी ताजुत्र भरी निगाहों से दोनों तरफ देखने लगी । | अभी तक त ति अन्धेरी थी, मगर अब विधाता ने किशोरी को यह बताने के लिए कि देव तू क्रिस बना में फँसी हुई है, तेरे रथ को चारो तरफ से घेर फर चलने वाले सचार कौन हूँ, तू किस रह से जा र है, और यह पहाडी संगत कै भयानक है १ श्रासमान पर माइतात्री बाई | चन्द्रमा निकन शाया और धीरे धीरे ऊँचा होने लगा निभको गेशानी में किशोरी ने अपनी बदकिस्मत के कुन सामान देख लिये और 28 देग नकि उटी । चारो तरफ की भयानक पहाड़ी और जगल नै