पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/९५

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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तति शुरू कर दिया है, अगर यही हालत रही तो सुबह होते होते तक जरूर लिखिला कर इस पडेगी । लजिये अब दूसर हो र बदलः । प्रकृति की न मालूम किस ताकत ने श्रीमान की स्याही को धो डाला और उनकी हुकुमत की रात वातते देर उदास तारों को भी विदा होने का हुक्म सुना दिया । इधर चेचैन तारों को घबराहट देख अपने हुस्न और अमाल पर भूल ई खिलखिला कर हैं सने वाली कलियों को सुबह की एडी ठण्डी ने खुद ही आड़े हाथों लिया और मारे थपे के उनके उस बनवि फो थिइना शुरू कर दिया तो दो ही घण्टे पहिले प्रकृति की किसी लेटी ने दुरुस्त कर दिया था । | मोतियों से ध्यादे मदार श्रीस की चू द को बिगड़ते और हँसो हुई कलियों का शृङ्गार मिते देख उनकी तरफदार खुशबू से न रहो गया, झट फलों से अलग हो सुबह की ठए ही इवा से उलझ पडी अर इधर उधर फेल धूम मचाना शुरू कर दिया । अपनी फरियाद सुनने के लिये उन नौजवानों के दिमाग में घुसे घुसु कर जुटाने की फिक्र करने लगी जो त मर जाग जगा कर इस समये खूबसूरत पल गडियों पर सुस्त पढ़ रहे थे। जब उन्होंने कुछ न सुना और करवट दम कर रद्द गये तो मालियों को भा घेरा । वे झट उठ बैठे और कमर कस उस जगह पहुँचे ३। फू श्रौर उर्म भरे इश के झरे से कहा सुनी हो रही थी । यख्ने छोटे जो की यह दिमागे कहा कि ऐसे का फैसला करें । पए फूलों को तोड़े तो कर चॅरेर भरने लगे } चली छुट्टी हुई, न रहे। बस न चाजे मासु ! क्या अच्छा झड। मिटया है ! इसके बदले ६ वे बड़े बड़े दररठ्न पुश हो हवा की मदद से झुक झुक कर भालियों को मुस्तम करने लगे जिनकी हनियों में एक भी फूल टिपाई नहीं देता था। यीं ऐसा न करें ! उनमें थी । क्य। जो दूसरों को मक्क देते, अपनी भूत सभा को भाती है और अपना से होते देख सभी खुश होते हैं।