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मौर्य्य-वंश

प्राचीन आर्य नृपतिगण का साम्राज्य उस समय नहीं रह गया था। चन्द्र और सूर्य्यवश की राजधानियाँ अयोध्या और हस्तिनापुर, विकृत रूप में भारत के वक्षस्थल पर अपने साधारण अस्तित्व का परिचय दे रही थी । अन्य प्रचण्ड बर्बर जातियों की लगातार चढाइयों से पवित्र सप्तसिन्धु प्रदेश में आर्यों के साम-गान का पवित्र स्वर मन्द हो गया था। पाञ्चालों की लीला-भूमि तथा पजाब मिश्रित जातियो से भर गया था। जाति, समाज और धर्म सब मे एक विचित्र मिश्रण और परिवर्तन सा हो रहा था । कहीं आभीर और कहीं ब्राह्मण, राजा बन बैठे थे । यह सब भारत-भूमि की भावी दुर्दशा की सूचना क्यों थी ? इसका उत्तर केवल यही आपको मिलेगा, कि---धर्म-सम्बन्धी महापरिवर्तन होनेवाला था। वह बुद्ध से प्रचारित होने वाले बौद्ध धर्म की ओर भारतीय आर्य लोगों का झुकाव था, जिसके लिए वे लोग प्रस्तुत हो रहे थे ।

उस धर्म्मबीज को ग्रहण करने के लिए कपिल, कणाद आदि ने आर्य्यो का हृदय-क्षेत्र पहले ही से उर्वर कर दिया था, किन्तु यह मत सर्वसाधारण में अभी नहीं फैला था । वैदिक कर्मकाण्ड की जटिलता से उपनिषद् तथा सांख्य आदि शास्त्र आर्य्य लोगों को सरल और सुगम प्रतीत होने लगे थे । ऐसे ही समय पार्श्र्वनाथ ने एक जीव-दयामय धर्म प्रचारित किया और वह धर्म बिना किसी शास्त्र-विशेष के, वेद तथा प्रमाण की उपेक्षा करते हुए फैलकर शीघ्रता के साथ सर्वसाधारण से सम्मान पाने लगा । आर्य्यो की राजसूय और अश्वमेध आदि शक्ति बढ़ाने वाली क्रियाये शून्य स्थान में ध्यान और चिन्तन के रूप में परिवर्तित हो गई , अहिंसा का प्रचार हुआ। इससे भारत की उत्तरी सीमा



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