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द्वितीय अंक
 

के पास कुछ सेना प्रतिरोध करने के लिए या केवल देखने के लिए रख छोड़ी हैं। हम लोग जब पहुँच जायँगे, तब वे लड़ लेंगे।

एनि॰—मुझे तो ये लोग आलसी मालूम पड़ते हैं।

सिकन्दर—नहीं-नहीं, यहाँ दार्शनिक की परीक्षा तो तुम कर चुके—दण्ड्यिायन को देखा न! थोड़ा ठहरो, यहाँ के वीरो का भी परिचय मिल जायगा। यह अद्भुत देश हैं।

एनि॰—परन्तु आम्भीक तो अपनी प्रतिज्ञा का सच्चा निकला—प्रबन्ध तो उसने अच्छा कर रखा है।

सिकन्दर—लोभी है! सुना है कि उसकी एक बहन चिढ़कर सन्यासिनी हो गई है।

एनि॰—मुझे विश्वास नहीं होता, इसमें कोई रहस्य होगा। पर एक बात कहूँगा, ऐसे पथ मे साम्राज्य की समस्या हल करना कहाँ तक ठीक है? क्यों न शिविर में ही चला जाय?

सिकन्दर—एनिसाक्रेटीज, फिर तो परसिपोलिन का राजमहल छोड़ने की आवश्यकता न थी, यहाँ एकान्त में मुझे कुछ ऐसी बातो पर विचार करना हैं, जिन पर भारत-अभियान का भविष्य निर्भर है। मुझे उस नंगे ब्राह्मण की बातो से बड़ी आशंका हो रही है, भविष्यवाणियाँ प्रायः सत्य होती हैं।

[एक ओर से फिलिप्स, आम्भीक, दूसरी ओर से सिल्यूकस और चन्द्रगुप्त का प्रवेश]

सिकन्दर—कहो फिलिप्स! तुम्हें क्या कहना है?

फिलि॰—आम्भीक से पूछ लिया जाय।

आम्भीक—यहाँ एक षड्यंत्र चल रहा है।

फिलि॰—और उसके सहायक है सिल्यूकस।

सिल्यूकस—(क्रोध और आश्चर्य से)—इतनी नीचता! अभी उस लज्जाजनक अपराध को प्रकट करना बाकी ही रहा—उलटा अभि-

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