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द्वितीय अंक
 

सिकन्दर––और उस ब्राह्मण के कहने पर अपने सम्राट् होने का तुम्हें विश्वास हो गया होगा, जो परिस्थिति को देखते हुए असम्भव भी नही जान पडता।

चन्द्रगुप्त––असम्भव क्यो नही?

सिकन्दर––हमारी सेना इसमें सहायता करेगी, फिर भी असम्भव है!

चन्द्रगुप्त––मुझे आप से सहायता नही लेनी है।

सिकन्दर––( क्रोध से )––फिर इतने दिनो तक ग्रीक-शिविर में रहने का तुम्हारा उद्देश्य?

चन्द्रगुप्त––एक सादर निमत्रण और सिल्यूकस से उपकृत होने के कारण उनके अनुरोध की रक्षा। परन्तु मैं यवनों को अपना शासक बनने को आमत्रित करने नहीं आया हूँ।

सिकन्दर––परन्तु इन्ही यवनो के द्वारा भारत जो आज तक कभी भी आक्रान्त नहीं हुआ है, विजित किया जायगा।

चन्द्रगुप्त––वह भविष्य के गर्भ में है, उसके लिए अभी से इतनी उछल-कूद मचाने की आवश्यकता नही।

सिकन्दर––अबोध युवक, तू गुप्तचर है!

चन्द्रगुप्त––नही, कदापि नही। अवश्य ही यहाँ रहकर यवन रण-नीति से में कुछ परिचित हो गया हूँ। मुझे लोभ से पराभूत गान्धार-राज आम्भीक समझने की भूल न होनी चाहिए, मैं मगध का उद्धार करना चाहता हूँ। परन्तु यवन लुटेरों की सहायता से नही।

सिकन्दर––तुमको अपनी विपत्तियो से डर नही––ग्रीक लुटेरे है?

चन्द्रगुप्त––क्या यह झूठ है? लूट के लोभ से हत्या-व्यवसायियों को एकत्र करके उन्हें वीर-सेना कहना, रण-कलो का उपहास करना है।

सिकन्दर––( आश्चर्य और क्रोध से )––सिल्यूकस!

चन्द्रगुप्त––सिल्यूकस नही, चन्द्रगुप्त से कहने की बात चन्द्रगुप्त से कहनी चाहिए।

अभ्भीक––शिष्टता से बाते करो।