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पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/१०८

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झेलम-तट का वनपथ
[चाणक्य, चन्द्रगुप्त और अलका का प्रवेश]

अलका—आर्य्य! अब हम लोगों का क्या कर्त्तव्य है?

चाणक्य—पलायन।

चन्द्र॰—व्यंग न कीजिए गुरुदेव!

चाणक्य—दूसरा उपाय क्या है?

अलका—है क्यों नही?

चाणक्य—हो सकता है,—(दूसरी ओर देखने लगता है)

चन्द्र॰—गुरुदेव!

चाणक्य—परिव्राजक होने की इच्छा है क्या? यही एक सरल उपाय है!

चन्द्र॰—नहीं, कदापि नहीं। यवनों को प्रतिपद में बाधा देना मेरा कर्त्तव्य है और शक्ति-भर प्रयत्न करूँगा।

चाणक्य—यह तो अच्छी बात है। परन्तु सिंहरण अभी नहीं आया।

चन्द्र॰—उसे समाचार मिलना चाहिए।

चाणक्य—अवश्य मिला होगा।

अलका—यदि न आ सके?

चाणक्य—जब काली घटाओं से आकाश घिरा हो, रह-रहकर बिजली चमक जाती हो, पवन स्तब्ध हो, उससे बढ़ रही हो, और आषाढ़ के आरम्भिक दिन हो, तब किस बात की संभावना करनी चाहिए?

अलका—जल बरसने की।

चाणक्य—ठीक उसी प्रकार जब देश में युद्ध हो, सिंहरण मालव को समाचार मिला हो, तब उसके आने की भी निश्चित आशा है।

चन्द्र॰—उधर देखिये—वे दो व्यक्ति कौन आ रहे है।

[सिंहरण का सहारा लिये वृद्ध गांधार-राज का प्रवेश]

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