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द्वितीय अंक
 


चन्द्र॰—नहीं जानता।

चाणक्य—अभी जानने की आवश्यकता भी नहीं। हम लोग उसी सेना के साथ अपने स्वाँग रक्खेंगे। वही हमारे खेल होंगे। चलो हम लोग चलें; देखो—वह नवीन गुल्म का युवक-सेनापति जा रहा है।

(सब का प्रस्थान)

[पुरुष-वेष में कल्याणी और सैनिक का प्रवेश]

कल्याणी—सेनापति! मैंने दुस्साहस करके पिताजी को चिढ़ा तो दिया, पर अब कोई मार्ग बताओ, जिससे मैं सफलता प्राप्त कर सकूँ पर्वतेश्वर को नीचा दिखलाना ही हमारा उद्देश्य है।

सेना॰—राजकुमारी!

कल्याणी—सावधान सेनापति!

सेनापति—क्षमा हो, अब ऐसी भूल न होगी। हाँ, तो केवल एक मार्ग है।

कल्याणी—वह क्या?

सेना॰—घायलों की शुश्रूषा का भार ले लेना है।

कल्याणी—मगध सेनापति! तुम कायर हो।

सेना॰—तब जैसी आज्ञा हो!—(स्वगत) स्त्री की अधीनता वैसे ही बुरी होती है, तिसपर युद्धक्षेत्र में! भगवान ही बचावे।

कल्याणी—मेरी इच्छा है कि जब पर्वतेश्वर यवन-सेना द्वारा चारों ओर से घिर जाय, उस समय उसका उद्धार करके अपनी मनोरथ पूर्ण करूँ।

सेना—बात तो अच्छी है।

कल्याणी—और तब तक हम लोगों की रक्षित सेना—(रुककर देखते हुए)—यह लो पर्वतेश्वर इधर ही आ रहा है।

[पर्वतेश्वर का युद्ध-वेश में प्रवेश]

पर्वतेश्वर—(दूर दिखला कर)—वह किस गुल्म का शिविर है। युवक?

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