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पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/१११

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चन्द्रगुप्त
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कल्याणी—मगध-गुल्म का महाराज!

पर्व॰—मगध की सेना, असम्भव! उसने तो रण-निमंत्रण ही अस्वीकृत किया था।

कल्याणी—परन्तु मगध की बड़ी सेना में से एक छोटा-सा वीर युवकों का दल इस युद्ध के लिए परम उत्साहित था। स्वेच्छा से उसने इस युद्ध में योग दिया हैं।

पर्व॰—प्राच्य मनुष्यों में भी इतना उत्साह!

[हँसता है]

कल्याणी—महाराज, उत्साह का निवास किसी विशेष दिशा में नहीं है!

पर्व॰—(हँसकर) प्रगल्भ हो युवक , परन्तु रण जब नाचने लगता है, तब भी यदि तुम्हारा उत्साह बना रहे तो मानूँगा। हाँ! तुम बडे़ सुन्दर सुकुमार हो, इसलिए साहस न कर बैठना। तुम मेरी रक्षित सेना के साथ रहो तो अच्छा! समझे न!

कल्याणी—जैसी आज्ञा!

[चन्द्रगुप्त, सिंहरण और अलका का वेश बदले हुए प्रवेश]

सिंह—खेल देख लो! ऐसा खेल—जो कभी न देखा हो, न सुना!

पर्व॰—नट! इस समय खेल देखने का अवकाश नहीं।

अलका—क्या युद्ध के पहले ही घबरा गये, सेनापति! वह भी तो वीरों का खेल ही है!

पर्व॰—बड़ी ढीठ है!

चन्द्र०—न हो तो नागों का ही दर्शन कर लो!

कल्याणी—बड़ा कौतुक है महाराज, इन नागों को ये लोग किस प्रकार वश कर लेते हैं?

चन्द्र॰—(सम्भ्रम से)—महाराज हैं! तब तो अवश्य पुरस्कार मिलेगा।