सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/११२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१११
द्वितीय अंक
 

[संपेरों की-सी चेष्टा करता है। पिटारी खोलकर सांप निकालता है]

कल्याणी—आश्चर्य है, मनुष्य ऐसे कुटिल विषधरों को भी वश कर सक‌ता हैं, परन्तु मनुष्य को नहीं!

पर्व॰—नट, नागों पर तुम लोगों का अधिकार कैसे हो जाता है?

चन्द्र॰—मंत्र-महौषधि के भाले से बड़े-बडे़ मत्त नाग वशीभूत होते हैं।

पर्व॰—भाले से?

सिह॰—हाँ महाराज! वैसे ही जैसे भालों से मदमत्त मातंग।

पर्व॰—तुम लोग कहाँ से आ रहे हो?

सिंह॰—ग्रीकों के शिविर से।

चन्द्र॰—उनके भाले भारतीय हाथियों के लिए बज्र ही है।

पर्व॰—तुम लोग आम्भीक के चर तो नहीं हो?

सिंह॰—रातोरात यवन-सेना वितस्ता के पार हो गई हैं―समीप है, महाराज! सचेत हो जाइए!

पर्व॰—मगधनायक! इन लोगों को बन्दी करो।

[चन्द्रगुप्त कल्याणी को ध्यान से देखता है]

अलका—उपकार का भी यह फल!

चन्द्र॰—हम लोग, बन्दी ही हैं। परन्तु रण-व्यूह से सावधान होकर सैन्य-परिचालन कीजिए। जाइए महाराज! यवन-रणनीति भिन्न है।

[पर्वतेश्वर उद्विग्न भाव से जाता है]

कल्याणी—(सिंहरण से)—चलो हमारे शिविर में ठहरो। फिर बताया जायगा।

चन्द्र॰—मुझे कुछ कहना है।

कल्याणी—अच्छा, तुम लोग आगे चलो।

[सिंहरण इत्यादि आगे बढ़ते हैं]

चन्द्र॰—इस युद्ध में पर्वतेश्वर की पराजय निश्चित है।

[38]