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चन्द्रगुप्त
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प्रतिकूल दैव ने मेघमाला का सृजन किया हैं। रथ बेकार होंगे और हाथियों का प्रत्यावर्त्तन और भयानक हो रहा हैं।

कल्याणी—तब! मगध-सेना तुम्हारे अधीन हैं, जैसा चाहो करो।

चन्द्र॰—पहले उस पहाड़ी पर सेना एकत्र होनी चाहिये। शीघ्र आवश्यकता होगी। पर्वतेश्वर की पराजय को रोकने की चेष्टा कर देखूँ।

कल्याणी—चलो!

[मेघों की गड़गड़ाहट—दोनों जाते हैं]
[एक ओर से सिल्यूकस, दूसरी ओर से पर्वतेश्वर का ससैन्य प्रवेश, युद्ध]

सिल्यू॰—पर्वतेश्वर! अस्त्र रख दो!

पर्व॰—यवन! सावधान! बचाओं अपने को!

[तुमुलयुद्ध; घायल होकर सिल्यूकस का हटना]

पर्व॰—सेनापति! देखो, उन कायरों को रोको। उनसे कह दो कि आज रणभूमि में पर्वतेश्वर पर्वत के समान अचल है। जय-पराजय की चिन्ता नहीं। इन्हे बतला देना होगा कि भारतीय लड़ना जानते हैं। बादलों से पानी बरसने की जगह बज्र बरसे, सारी गज-सेना छिन्न-भिन्न हो जाय, रथी विरथ हो, रक्त के नाले धमनियों में बहे, परन्तु एक पग भी पीछे हटना पर्वतेश्वर के लिए असम्भव है। धर्मयुद्ध में प्राण-भिक्षा माँगनेवाले भिखारी हम नहीं। जाओ, उन भगोड़ों से एक बार जननी के स्तन्य की लज्जा के नाम पर रुकने के लिए कहो। कहो कि मरने का क्षण एक ही है। जाओ।

[सेनापति का प्रस्थान। सिंहरण और अलका का प्रवेश]

सिंह॰—महाराज! यह स्थान सुरक्षित नहीं। उस पहाड़ी पर चलिए।

पर्व॰—तुम कौन हो युवक!

सिह॰—एक मालव!

पर्व॰—मालव के मुख से ऐसा कभी नहीं सुना गया। मालव! खड्ग-क्रीड़ा देखनी हो तो खडे़ रहो। डर लगता हो तो पहाड़ी पर जाओ।