सिंह०––महाराज, यवनों का एक दल वह आ रहा हैं!
पर्व०––आने दो। तुम हट जाओ।
[ सिल्यूकस और फिलिप्स का प्रवेश––सिंहरण और पर्वतेश्वर का युद्ध और लड़खड़ा कर गिरने की चेष्टा। चन्द्रगुप्त और कल्याणी का सैनिकों के साथ पहुंचना। दूसरी ओर से सिकन्दर को आना। युद्ध बन्द करने के लिए सिकन्दर की आज्ञा। ]
चन्द्र०––युद्ध होगा!
सिक०––कौन, चन्द्रगुप्त!
चन्द्र०––हाँ देवपुत्र!
सिक०––किससे युद्ध! मुमूर्षु घायल पर्वतेश्वर––वीर पर्वतेश्वर से! कदापि नही। आज मुझे जय-पराजय का विचार नहीं है। मैंने एक अलौकिक वीरता का स्वर्गीय दृश्य देखा है। होमर की कविता में पढ़ी हुई, जिस कल्पना से मेरा हृदय भरा है, उसे यहाँ प्रत्यक्ष देखा! भारतीय वीर पर्वतेश्वर! अब मै तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करू?
पर्व०––( रक्त पोंछते हुए )––जैसा एक नरपति अन्य नरपति के साथ करता है, सिकन्दर!
सिक०––मैं तुमसे मैत्री करना चाहता हूँ। विस्मय-विमुग्ध होकर तुम्हारी सराहना किए बिना में नहीं रह सकता––धन्य! आर्य्य वीर!
पर्व०––मैं तुमसे युद्ध न करके मैत्री भी कर सकता हूँ।
चन्द्र०––पचनद-नरेश! आप क्या कर रहे है! समस्त मगध-सेना आपकी प्रतीक्षा में है, युद्ध होने दीजिए!
कल्याणी––इन थोडे-से अर्धजीव यवनो को विचलित करने के लिए पर्याप्त मागध सेना है। महाराज! आज्ञा दीजिये।
पर्व०––नही युवक! वीरता भी एक सुन्दर कला है, उसपर मुग्ध होना आश्चर्य की बात नही, मैने वचन दे दिया, अब सिकन्दर चाहे हटे।
सिक०––कदापि नही।