पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/११७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
चन्द्रगुप्त
११६
 


कल्याणी—(शिरस्त्राण फेंककर)—जाती हूँ क्षत्रिय पर्वतेश्वर! तुम्हारे पतन में रक्षा न कर सकी, बड़ी निराशा हुई!

पर्व॰—तुम कौन हो?

चन्द्र॰—मागध-राजकुमारी कल्याणी देवी।

पर्व॰—ओह पराजय! निकृष्ट पराजय!

[चन्द्रगुप्त और कल्याणी का प्रस्थान। सिकन्दर आश्चर्य से देखता है। अलका घायल सिंहरण को उठाया चाहती है कि आम्भीक आकर दोनों को बन्दी करता है।]

पर्व॰—यह क्या?

आम्भीक—इनको अभी बन्दी बना रखना आवश्यक है।

पर्व॰—तो वे लोग मेरे यहाँ रहेंगे।

सिक॰—पंचनद-नरेश की जैसी इच्छा हो।