पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/१२३

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सिकन्दर ने विरोध मिटाने के लिए पर्वतेश्वर की भगिनी से आम्भीक का ब्याह करा दिया है, परन्तु आम्भीक ने यह जानकर भी कि मैं यहाँ बन्दिनी हूँ मुझे छुड़ाने का प्रयत्न नहीं किया। उसकी भीतरी इच्छा थी, कि पर्वतेश्वर की कई रानियों में से एक मैं भी हो जाऊँ, परन्तु मैंने अस्वीकार कर दिया।

सिंह॰—अलका, तब क्या करना होगा?

अलका—यदि मैं पर्वतेश्वर से ब्याह करना स्वीकार करूँ, तो संभव है कि तुमको छुड़ा दूँ।

सिंह॰—मैं........अलका! मुझसे पूछती हो!

अलका—दुसरा उपाय क्या है?

सिंह॰—मेरा सिर घूम रहा है। अलका! तुम पर्वतेश्वर की रणयिनी बनोगी! अच्छा होता कि इसके पहले ही मैं न रह जाता।

अलका—क्यों मालव, इसमें तुम्हारी कुछ हानि है?

सिंह॰—कठिन परीक्षा न लो अलका! मैं बड़ा दुर्बल हूँ। मैंने जीवन और मरण में तुम्हारा संग न छोड़ने का प्रण किया है।

अलका—मालव, देश की स्वतंत्रता तुम्हारी आशा में है।

सिंह॰—और तुम पंचनद की अधीश्वरी बनने की आशा में...तब मुझे रणभूमि में प्राण देने की आज्ञा दो।

अलका—(हँसती हुई)—चिढ़ गए! आर्य्य चाणक्य की आज्ञा हैं कि थोड़ी देर पंचनद का सूत्र-संचालन करने के लिए मैं यहाँ की रानी बन जाऊँ।

सिंह॰—यह भी कोई हँसी है!

अलका—बन्दी! जाओ सो रहो, मैं आज्ञा देती हूँ।

[सिंहरण का प्रस्थान]

अलका—सुन्दर निश्छल हृदय, तुमसे हँसी करना भी अन्याय है! परन्तु व्यथा को दबाना पड़ेगा। सिंहरण को मालव भेजने के लिए प्रणय के साथ अत्याचार करना होगा।