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द्वितीय अंक
 

[गाती है]

प्रथम यौवन-मदिरा से मत्त, प्रेम करने की थी परवाह
और किसको देना है ह्रदय, चीन्हने की न तनिक थी चाह।
बेच डाला था ह्रदय अमोल, आज वह माँग रहा था दाम,
वेदना मिली तुला पर तोल, उसे लोभी ने ली बेकाम।
उड़ रही है हृत्पथ में धूल आ रहे हो तुम बे-परवाह,
करूँ क्या दृग-जल से छिड़काव, बनाऊँ मैं यह बिछलन राह।
सँभलते धीरे-धीरे चलो, इसी मिस तुमको लगे विलम्ब,
सफल हो जीवन की सब साध, मिले आशा को कुछ अवलम्ब।
विश्व की सुषमाओं का स्रोत, बह चलेगा आँखों की राह,
और दुर्लभ होगी पहचान, रूप रत्नाकर भरा अथाह।


[पर्वतेश्वर का प्रवेश]

पर्व॰—सुन्दरी अलका, तुम कब तक यहाँ रहोगी?

अलका—यह बन्दी बनानेवाले की इच्छा पर निर्भर करता है।

पर्व॰—तुम्हें कौन बन्दी कहता है? यह तुम्हारा अन्याय है, अलका! चलो, सुसज्जित राजभवन तुम्हारी प्रत्याशा में है।

अलका—नहीं पौरव, मैं राजभवनों से डरती हूँ, क्योंकि उनके लोभ से मनुष्य आजीवन मानसिक कारावास भोगता है।

पर्व॰—इसका तात्पर्य?

अलका—कोमल शय्या पर लेटे रहने की प्रत्याशा में स्वतंत्रता का भी विसर्जन करना पड़ता है, यही उन विलासपूर्ण राजभवनों का प्रलोभन है।

पर्व॰—व्यंग न करो अलका। पर्वतेश्वर ने जो कुछ किया हैं, वह भारत का एक-एक बच्चा जानता है। परन्तु दैव प्रतिकूल हो, तब क्या किया जाय?

अलका—मैं मानती हूँ, परन्तु आपकी आत्मा इसे मानने के लिए