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चन्द्रगुप्त
१२४
 


प्रस्तुत न होगी। हम लोग जो आपके लिए, देश के लिए, प्राण देने को प्रस्तुत थे, केवल यवनो को प्रसन्न करने के लिए वन्दी किये गये।

पर्व— वन्दी कैसे?

अलका— वन्दी नही तो और क्या? सिंहरण, जो आपके साथ युद्ध करते घायल हुआ है, आज तक वह क्यो रोका गया? पचनद-नरेश, आपका न्याय अत्यन्त सुन्दर है न!

पर्व०— कौन कहता है सिंहरण वन्दी है? उस वीर की मै प्रतिष्ठा करता हूँ अलका, परन्तु उससे द्वद्व-युद्ध किया चाहता हूँ!

अलका— क्यो?

पर्व०— क्योकि अलका के दो प्रेमी नही जी सकते।

अलका— महाराज, यदि भूपालो का-सा व्यवहार न माँगकर आप सिकन्दर से द्वद्व-युद्ध माँगते, तो अलका को विचार करने का अवसर मिलता।

पर्व०— यदि मै सिकन्दर का विपक्षी बन जाऊँ तो तुम मुझे प्यार करोगी अलका? सच कहो।

अलका— तब विचार करूँँगी, पर वैसी सभावना नहीं।

पर्व०— क्या प्रमाण चाहती हो अलका?

अलका— सिंहरण के देश पर यवनो का आक्रमण होनेवाला है, वहाँ तुम्हारी सेना, यवनो की सहायक न वने, और सिंहरण अपनी, मालव की रक्षा के लिए मुक्त किया जाय।

पर्व०— मुझे स्वीकार है।

अलका— तो मै भी राजभवन में चलने के लिए प्रस्तुत हूँ, परन्तु एक नियम पर!

पर्व०— वह क्या?

अलका— यही कि सिकन्दर के भारत में रहने तक मै स्वतत्र रहूँगी। पचनद-नरेश, यह दस्यु-दल बरसाती बाढ़ के समान निकल जायगा, विश्वास रखिए।