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द्वितीय अंक
 

और यहाँ की परिस्थिति में चन्द्रगुप्त से बढ़ कर इस कार्य के लिए दूसरा व्यक्ति न होगा। वितस्ता-प्रदेश के अधीश्वर पर्वतेश्वर के यवनों से सन्धि करने पर भी चन्द्रगुप्त ही के उद्योग का यह फल है कि पर्वतेश्वर की सेना यवन-सहायता को न आवेगी। उसी के प्रयत्न से यवन-सेना में विद्रोह भी हो गया है, जिससे उनका आगे बढ़ना असम्भव हो गया है। परन्तु सिकन्दर की कूटनीति प्रत्यावर्तन में भी विजय चाहती है। वह अपनी विद्रोही सेना को स्थल-मार्ग से लौटने की आज्ञा देकर नौबल के द्वारा स्वयं सिन्धु-संगम तक के प्रदेश विजय करना चाहता है। उसमें मालवों का नाश निश्चित है। अतएव, सेनापतित्व के लिए आप लोग चन्द्रगुप्त को वरण करें, तो क्षुद्रकों का सहयोग भी आप लोगो को मिलेगा। चन्द्रद्रगुप्त को ही उन लोगों ने भी सेनापति बनाया हैं।

नाग॰—ऐसा नहीं हो सकता!

चाणक्य—प्रबल प्रतिरोध करने के लिए दोनों सैन्यों में एकाधिपत्य होना आवश्यक है। साथ ही क्षुद्रकों की सन्धि की मर्य्यादा भी रखनी चाहिए। प्रश्न शासन का नहीं, युद्ध का है। युद्ध में सम्मिलित होने वाले वीरों को एकनिष्ठ होना ही लाभदायक है। फिर तो मालव और क्षुद्रक दोनों ही स्वतंत्र-संघ हैं और रहेंगे। सम्भवत इसमें प्राच्यों का एक गणराष्ट्र आगामी दिनों में और भी आ मिलेगा।

नाग॰—समझ गया, चन्द्रगुप्त को ही सम्मिलित सेना का सेनापति बनाना श्रेयस्कर होगा।

सिंह॰—अन्न, पान और भैषज्य सेवा करनेवाली स्त्रियों ने मालविका को अपना प्रधान बनाने की प्रार्थना की हैं।

गणमूख्य—यह उन लोगों की इच्छा पर हैं। अस्तु, महाबलाधि-कृत-पद के लिए चन्द्रगुप्त को ही वरण करने की आज्ञा परिषद देती हैं। (समवेत जयघोष)