समय-विहग के कृष्णपक्ष में रजत चित्र-सी अंकित कौन?
तुम हो सुंदरि तरल तारिके! बोलो कुछ, बैठो मत मौन!
मंदाकिनी समीप भरी फिर प्यासी आँखें क्यों नादान।
रूप-निशा की उषा में फिर कौन सुनेगा तेरा गान!
पर्व॰—अलका! मैं पागल होता जा रहा हूँ। यह तुमने क्या कर दिया है!
अलका—मैं तो गा रही हूँ।
पर्व॰—परिहास न करो। बताओ, मैं क्या करूँ?
अलका—यदि सिकन्दर के रण-निमन्त्रण में तुम न जाओगे तो तुम्हारा राज्य चला जायगा।
पर्व॰—बड़ी विडम्बना है!
अलका—पराधीनता से बढ़कर विडम्बना और क्या है? अब समझ गए होंगे कि वह संधि नहीं, पराधीनता की स्वीकृति थी।
पर्व॰—मैं समझता हूँ कि एक हजार अश्वारोहियों को साथ लेकर वहाँ पहुँच जाऊँ, फिर कोई बहाना ढूँढ निकालूँगा।
अलका—(मन में) मै चलूँ, निकल भागने का ऐसा अवसर दूसरा न मिलेगा!—(प्रकट) अच्छी बात है, परन्तु मैं भी साथ चलूँगी! मैं यहाँ अकेले क्या करूँगी?
[पर्वतेश्वर का प्रस्थान]
च॰ ९