सिंह॰—(आश्चर्य से)—तुम कैसे अलका?
अलका—पर्वतेश्वर ने प्रतिज्ञा भंग की है, वह सैनिकों के साथ सिकन्दर की सहायता के लिए आया है। मालवों की नावें घूम रही थीं। मैं जान-बूझकर पर्वतेश्वर को छोड़कर वहीं पहुँच गई (हँसकर)—परन्तु मैं बन्दी आई हूँ!
चन्द्र॰—देवि! युद्धकाल है, नियमो को तो देखना ही पड़ेगा। मालविका! ले जाओ इन्हें उपवन में।
[मालविका और अलका का प्रस्थान]
मालव रक्षकों के साथ एक यवन का प्रवेश
यवन—मालव के सन्धि-विग्रहिक अमात्य से मिलना चाहता हूँ।
सिंह॰—तुम दूत हो?
यवन—हाँ!
सिंह॰—कहो, मैं यही हूँ।
यवन—देवपुत्र ने आज्ञा दी हैं कि मालव-नेता मुझसे आकर भेंट करे और मेरी जल-यात्रा की सुविधा का प्रबन्ध करें।
सिंह॰—सिकन्दर से मालवों की ऐसी कोई सन्धि नहीं हुई है, जिससे वे इस कार्य के लिए बाध्य हो। हाँ, भेंट करने के लिए मालव सदैव प्रस्तुत हैं—चाहे सन्धि-परिषद् में या रणभूमि में!
यवन—तो यही जाकर कह दूँ?
सिंह॰—हाँ, जाओ—(रक्षकों से)—इन्हें सीमा तक पहुँचा दो।
[यवन का रक्षकों के साथ प्रस्थान]
चन्द्रगुप्त—मालव, हम लोगों ने भयानक दायित्व उठाया हैं, इसका निर्वाह करना होगा।
सिंह॰—जीवन-मरण से खेलते हुए करेंगे वीरवर!
चन्द्र॰—परन्तु सुना तो, यवन लोग आर्य्यों की रणनीति से नहीं लड़ते। वे हमी लोगों के युद्ध हैं, जिनमें रणभूमि के पास ही कृषक स्वच्छन्दता से हल चलाता है। यवन आतंक फैलाना जानते है और