पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/१३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
चन्द्रगुप्त
१३४
 


राक्षस—(विचार कर)—आह ब्राह्मण, मैं स्वयं रहूँगा, यह तो मान लेने योग्य सम्मति है। परन्तु—

चाणक्य—फिर परन्तु लगाया। तुम स्वयं रहो और राजकुमारी भी रहें। और तुम्हारे साथ जो नवीन गुल्म आये हैं, उन्हें भी रखना पडे़गा। जब सिकन्दर रावी के अन्तिम छोर पर पहुँचेगा, तब तुम्हारी सेना का काम पडे़गा। राक्षस! फिर भी मगध पर मेरा स्नेह है। मैं उसे उजड़ने और हत्याओं से बचाना चाहता हूँ।

[प्रस्थान]

कल्याणी—क्या इच्छा है अमात्य?

राक्षस—मैं इसका मुँह भी नहीं देखना चाहता। पर इसकी बातें मानने के लिए विवश हो रहा हूँ। राजकुमारी! यह मगध का विद्रोही अब तक बन्दी कर लिया जाता, यदि इसकी स्वतंत्रता की आवश्यकता न होती।

कल्याणी—जैसी सम्मति हो।

[चाणक्य का पुनः प्रवेश]

चाणक्य—अमात्य! सिंह पिजडे़ में बन्द हो गया है।

राक्षस—कैसे?

चाणक्य—जल-यात्रा में इतना विघ्न उपस्थित हुआ कि सिकन्दर को स्थल-मार्ग से मालवों पर आक्रमण करना पड़ा। अपनी विजयों पर फूल कर उसने ऐसा किया, परन्तु जा फँसा उनके चंगुल में। अब इधर क्षुद्रकों और मागधों की नवीन सेनाओं से उनको बाधा पहुँचानी होगी।

राक्षस—तब तुम क्या कहते हो? क्या चाहते हो?

चाणक्य—यही, कि तुम अपनी सम्पूर्ण सेना लेकर विपाशा के तट की रक्षा करो, और क्षुद्रकों को लेकर मैं पीछे से आक्रमण करने जाता हूँ। इनमें तो डरने की बात कोई नहीं?

राक्षस—मैं स्वीकार करता हूँ।