यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३५
द्वितीय अंक
चाणक्य—यदि न करोगे तो अपना ही अनिष्ट करोगे।
[प्रस्थान]
कल्याणी—विचित्र ब्राह्मण है अमात्य! मुझे तो इसको देखकर डर लगता है।
राक्षस—विकट है! राजकुमारी, एक बार इससे मेरा द्वंद्व होना अनिवार्य्य है, परन्तु अभी मैं उसे बचाना चाहता हूँ।
कल्याणी—चलिए।
[कल्याणी का प्रस्थान]
चाणक्य—(पुनः प्रवेश करके)—राक्षस, एक बात तुम्हारे कल्याण की है, सुनोगे? मैं कहना भूल गया था।
राक्षस—क्या?
चाणक्य—नन्द को अपनी प्रेमिका सुवासिनी से तुम्हारे अनुचित सम्बन्ध का विश्वास हो गया है। अभी तुम्हारा मगध लौटना ठीक न होगा। समझे!
[चाणक्य का सवेग प्रस्थान, राक्षस सिर पकड़ कर बैठ जाता है]