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चन्द्रगुप्त
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और मूर्खता की प्रतिमूर्ति नन्द! एक पशु! उसके लिए क्या चिन्ता थी! सुवासिनी! मैं सुवासिनी के लिए मगध को बचाना चाहता था! कुटिल विश्वघातिनी राज-सेवा! तुझे धिक्कार है!

[एक नायक का सैनिकों के साथ प्रवेश]

नायक—अमात्य राक्षस, मगध-सम्राट् की आज्ञा से शस्त्र त्याग कीजिए। आप बन्दी हैं।

राक्षस—(खड्ग खींच कर)—कौन है तू मूर्ख! इतना साहस!

नायक—यह तो बन्दीगृह बतावेगा! बल-प्रयोग करने के लिए मैं बाध्य हूँ।—(सैनिकों से)—अच्छा! बाँध लो।

[दूसरी ओर से आठ सैनिक आकर उन पहले के सैनिकों को बन्दी बनाते हैं। राक्षस आश्चर्य-चकित होकर देखता है।]

नायक—तुम सब कौन हो?

नवागत सैनिक—राक्षस के शरीर-रक्षक!

राक्षस—मेरे!

नवागत—हाँ अमात्य! आर्य चाणक्य ने आज्ञा दी हैं कि जब तक यवनो का उपद्रव है तब तक सब की रक्षा होनी चाहिए, भले ही वह राक्षस क्यों न हो।

राक्षस—इसके लिए मैं चाणक्य का कृतज्ञ हूँ।

नवागत—परन्तु अमात्य! कृतज्ञता प्रकट करने के लिए आप को उनके समीप तक चलना होगा।

[सैनिकों को संकेत करता है, बन्दियों को लेकर चले जाते हैं]

राक्षस—मुझे कहाँ चलना होगा? राजकुमारी से शिविर में भेट कर लूँगा।

नवागत—वहीं सबसे भेट होगी। यह पत्र है।

[राक्षस पत्र लेकर पढ़ता है]

राक्षस—अलका का सिंहरण से ब्याह होने वाला है, उसमें मैं भी निमंत्रित किया गया हूँ! चाणक्य विलक्षण बुद्धि का ब्राह्मण है, उसकी