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चन्द्रगुप्त
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सिंह॰—चन्द्रगुप्त के लिए यह प्राण अर्पित है अलके, मालव कृतघ्न नहीं होते। देखो, चन्द्रगुप्त और चाणक्य आ रहे हैं।

अलका—और उधर से पर्वतेश्वर भी।

[चन्द्रगुप्त, चाणक्य और पर्वतेश्वर का प्रवेश]

सिंह॰—मित्र! अभी कुछ दिन और ठहर जाते तो अच्छा था; अथवा जैसी गुरुदेव की आज्ञा।

चाणक्य—पर्वतेश्वर, तुमने मुझसे प्रतिज्ञा की हैं!

पर्व॰—मैं प्रस्तुत हूँ, आर्य्य!

चाणक्य—अच्छा तो तुम्हे मेरे साथ चलना होगा। सिंहरण मालव गणराष्ट्र का व्यक्ति है, वह अपनी शक्ति भर प्रयत्न कर सकता है; किन्तु सहायता बिना परिषद् की अनुमति लिये असम्भव है। मैं परिषद् के सामने अपना भेद खोलना नहीं चाहता। इसलिए पौरव, सहायता केवल तुम्हें करनी होगी। मालव अपने शरीर और खड्ग का स्वामी हैं, वह मेरे लिए प्रस्तुत हैं। मगध का अधिकार प्राप्त होने पर जैसा कहोगे ......

पर्व॰—मैं कह चुका हूँ आर्य्य चाणक्य! इस शरीर में या धन में, विभव में या अधिकार में, मेरी स्पृहा नहीं रह गई। मेरी सेना के महाबलाधिकृत सिंहरण और मेरा कोप आप का हैं।

चन्द्र॰—मैं आप लोगों का कृतज्ञ होकर मित्रता को लघु नहीं बनाना चाहता। चन्द्रगुप्त सदैव आप लोगों का वही सहचर है।

चाणक्य—परन्तु तुम्हें अभी मगध नहीं जाना होगा। अभी जो मगध से संदेश मिले हैं, वे बड़े भयानक हैं! सेनापति, तुम्हारे पिता कारागार में है! और भी.........

चन्द्र॰—इतने पर भी आप मुझे मगध जाने से रोक रहे हैं?

चाणक्य—यह प्रश्न अभी मत करो।

[चन्द्रगुप्त सिर झुका लेता है, एक पत्र लिये मालविका का प्रवेश]

माल॰—यह सेनापती के नाम पर है।