पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/१५५

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मगध में नन्द की रंगशाला
[नन्द का प्रवेश]

नन्द—सुवासिनी!

सुवा॰—देव!

नन्द—कहीं दो घड़ी चैन से बैठने की छुट्टी भी नहीं, तुम्हारी छाया में विश्राम करने आया हूँ।

सुवा॰—प्रभु, क्या आज्ञा हैं? अभिनय देखने की इच्छा हैं?

नन्द—नहीं सुवासिनी, अभिनय तो नित्य देख रहा हूँ। छल, प्रतारणा, विद्रोह के अभिनय देखते-देखते ऑंखें जल रही हैं। सेनापति मौर्य्य—जिसके बल पर मैं भूला था, जिसके विश्वास पर मैं निश्चित सोता था, विद्रोही-पुत्र चन्द्रगुप्त को सहायता पहुँचाता है। उसी का न्याय करना था—आजीवन अन्धकूप का दण्ड देकर आ रहा हूँ। मन काँप रहा है—न्याय हुआ कि अन्याय! हृदय संदिग्ध है। सुवासिनी! किस पर विश्वास करूँ?

सुवा॰—अपने परिजनों पर देव!

नन्द—अमात्य राक्षस भी नहीं , मैं तो घबरा गया हूँ।

सुवा॰—द्राक्षासव ले आऊँ?

नन्द—ले आओ—(सुवासिनी जाती है)—सुवासिनी कितनी सरल हैं! प्रेम और यौवन के शीतल मेघ इन लहलही लता पर मँडरा रहे हैं। परन्तु.....

[सुवासिनी का पानपात्र लिये प्रवेश, पात्र भर कर देती है]

नन्द—सुवासिनी! कुछ गाओ,—वही उन्मादक गान!

[सुवासिनी गाती है]