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तृतीय अंक
 

आज इस यौवन के माधवी कुञ्ज में कोकिल बोल रहा!
मधु पीकर पागल हुआ, करता प्रेम-प्रलाप,
शिथिल हुआ जाता हृदय, जैसे अपने आप।
लाज के बन्धन खोल रहा!
बिछल रही है चाँदनी, छवि-मतवाली रात,
कहती कम्पित अधर से, बहकाने की बात।
कौन मधु-मदिरा घोल रहा?


नन्द—सुवासिनी! जगत्‌ में और भी कुछ है—ऐसा मुझे नहीं प्रतीत होता! क्या उस कोकिल की पुकार केवल तुम्हीं सुनती हो? ओह! मैं इस स्वर्ग से कितनी दूर था! सुवासिनी!

[कामुक की-सी चेष्टा करता है]

सुवासिनी—भ्रम है महाराज! एक वेतन पानेवाली का यह अभिनय है।

नन्द—कभी नहीं, यह भ्रम है तो समस्त संसार मिथ्या है। तुम सच कहती हो, निर्बोध नन्द ने कभी वह पुकार नहीं सुनी। सुन्दरी! तुम मेरी प्राणेश्वरी हो।

सुवासिनी—(सहसा चकित होकर)—मैं दासी हूँ महाराज!

नन्द—यह प्रलोभन देकर ऐसी छलना! नन्द नहीं भूल सकता सुवासिनी! आओ—(हाथ पकड़ता है।)

सुवासिनी—(भयभीत होकर)—महाराज! मैं अमात्य राक्षस की धरोहर हूँ, सम्राट्‌ की भोग्या नहीं बन सकती।

नन्द—अमात्य राक्षस इस पृथ्वी पर तुम्हारा प्रणयी होकर नहीं जी सकता।

सुवासिनी—तो उसे खोजने के लिए स्वर्ग में जाऊँगी।

[नन्द उसे बलपूर्वक पकड़ लेता है। ठीक उसी समय अमात्य का प्रवेश]

नन्द—(उसे देखते ही छेड़ता हुआ)—तुम! अमात्य, राक्षस!