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चन्द्रगुप्त
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अलका—गुरुदेव, महानगरी कुसुमपुर का ध्वंस और नन्द-पराजय इस प्रकार संभव है?

चाणक्य—अलके! चाणक्य अपना कार्य, अपनी बुद्धि से साधन करेगा। तुम देखती भर रहो और मैं जो बताऊँ करती चलो। मालविका अभी बालिका है, उसकी रक्षा आवश्यक है। उसे देखो तो।

[अलका जाती है]

चाणक्य—वह सामने कुसुमपुर है, जहाँ मेरे जीवन का प्रभात हुआ था। मेरे उस सरल हृदय में उत्कट इच्छा थी कि कोई भी, सुन्दर मन मेरा साथी हो। प्रत्येक नवीन परिचय में उत्सुकता थी और उसके लिए मन में सर्वस्व लुटा देने की सन्नद्धता थी। परन्तु संसार—कठोर संसार ने सिखा दिया है कि तुम्हें परखना होगा। समझदारी आने पर यौवन चला जाता है—जब तक माला गूँथी जाती है, तब तक फूल कुम्हला जाते हैं। जिससे मिलने के सम्भार की इतनी धूम-धाम, सजावट, बनावट होती है, उसके आने तक मनुष्य-हृदय को सुन्दर और उपयुक्त नहीं बनाए रह सकता। मनुष्य की चञ्चल स्थिति कब तक उस श्यामल कोमल हृदय को मरूभूमि बना देती है। यही तो विषमता है [ मैं—अविश्वास, कूट-चक्र और छलनाओं का कंकाल, कठोरता का केन्द्र! ओह! तो इस विश्व में मेरा कोई सुहृद नहीं है? मेरा संकल्प, अब मेरा आत्माभिमान ही मेरा मित्र है। और थी एक क्षीण रेखा, वह जीवन-पट से धुल चली है। धुल जाने दूँ? सुवासिनी न न न, वह कोई नहीं। मैं अपनी प्रतिज्ञा पर आसक्त हूँ। भयानक रमणीयता है। आज उस प्रतिज्ञा में जन्मभूमि के प्रति कर्तव्य का भी यौवन चमक रहा है] तृण-शय्या पर आधे पेट खाकर सो रहनेवाले के सिर पर दिव्य यश का स्वर्ण-मुकुट! और सामने सफलता का स्मृति-सौंध (आकाश की ओर देखकर) वह, इन लाल बादलों में दिग्दाहका धूम मिल रहा है! भीषण रव से सब जैसे चाणक्य का नाम चिल्ला रहे हैं। (देख कर) है! यह कौन भूमि-सन्धि तोड़कर सर्प के समान निकल रहा है! छिप कर देखूँ—