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तृतीय अंक
 

[छिप जाता है। एक ढूह की मिट्टी गिरती है, उसमें से शकटार वनमानुष के समान निकलता है]

शक॰—(चारों ओर देखकर आँख बन्द कर लेता है, फिर खोलता हुआ)—आँखें नहीं सह सकती, इन्हीं प्रकाश-किरणों के लिए तड़प रही थीं! ओह, तीखी हैं! तो क्या मैं जीवित हूँ? कितने दिन हुए, कितने महीने, कितने वर्ष? नहीं स्मरण है। अन्धकूप की प्रधानता सर्वोपरि थी। सात लड़के भूख से तड़प कर मरे। कृतज्ञ हूँ उस अन्धकार का, जिसने उन विवर्ण मुखों को न देखने दिया। केवल उनके दम तोड़ने का क्षीण शब्द सुन सका। फिर भी जीवित रहा—सतू और नमक पानी से मिलाकर, अपनी नसों से रक्त पीकर जीवित रहा! प्रतिहिंसा के लिए!पर अब शेष है, दम घुट रहा है। ओह! (गिर पड़ता है।)

[चाणक्य पास आकर कपड़ा निचोड़ कर मुँह में जल डल सचेत करता है]

चाणक्य—आह! तम कोई दुखी मनुष्य हो! घबराओ मत, मैं तुम्हारी सहायता के लिए प्रस्तुत हूँ।

शक॰—(ऊपर देखकर)—तुम सहायता करोगे? आश्चर्य! मनुष्यमनुष्य की सहायता करेगा, वह उसे हिंस्र पशु के समान नोंच न ड़ालेगा! हाँ, यह दूसरी बात है कि वह जोंक की तरह बिना कष्ट दिये रक्त चूसे। जिसमें कोई स्वार्थ न हो, ऐसी सहायता! तुम भूखे भेड़िये!

चाणक्य—अभागे मनुष्य! सब से चौंक कर अलग न उछल! अविश्वास की चिनगारी पैरों के नीचे से हटा। तुझ जैसे दुखी बहुत पड़े हैं। यदि सहायता नहीं तो परस्पर का स्वार्थ ही सही।

शक॰—दुःख! दुःख का नाम सुना होगा, या कल्पित आशंका से तुम उसका नाम लेकर चिल्ला उठते होगे। देखा है कभी—सात-सात गोद के लालों को भूख से तड़प कर मरते? अन्धकार की घनी चादर में बरसों भूगर्भ की जीवित समाधि में एक-दूसरे को, अपना आहार देकर