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चन्द्रगुप्त
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स्वेच्छा से मरते देखा हैं––प्रतिहिंसा की स्मृति को ठोकरे मार-मार कर

जगाते, और प्राग विसर्जन करते? देखा है कभी यह कप्ट––उन सबो ने अपना आहार मुझे दिया और पिता होकर भी मैं पत्थर-सा जीवित रहा! उनका आहार खा डाला––उन्हे मरने दिया! जानते हो क्यो? वे सुकुमार थे, वे सुख की गोद में पले थे, वे नहीं सहन कर सकते थे, अत सब मर जाते। मैं बच रहा प्रतिशोध के लिए! दानवी प्रतिहिंसा के लिए! ओह! उस अत्याचारी नर-राक्षस की अँतडियो में से खीचकर एक बार रक्त का फुहारा छोडता!––इस पृथ्वी को उसी से रँगी देखता।

चाणक्य––सावधान! ( शकटार को उठाता है। )

शक०––सावधान हो वे, जो दुर्बलो पर अत्याचार करते है! पीडित पददलित, सब तरह लुटा हुआ! जिसने पुत्रों की हड्डियो से सुरंग खोदा है, नखो से मिट्टी हटाई है, उसके लिए सावधान रहने की आवश्यकता नहीं। मेरी वेदना अपने अन्तिम अस्त्रो से सुसज्जित है।

चाणक्य––तो भी तुमको प्रतिशोध लेना है! हम लोग एक ही पथ के पथिक है। घबराओ मत। क्या तुम्हारा और कोई भी इस संसार में जीवित नहीं?

शक०––बची थी, पर न जाने कहाँ है। एक वालिका––अपनी माता की स्मृति––सुवासिनी। पर अब कहाँ है, कौन जाने!

चाणक्य––क्या कहा? सुवासिनी?

शक०––हाँ सुवासिनी।

चाणक्य––और तुम शकटार हो?

शक०––( चाणक्य का गला पकडकर )––पोट दूँँगा गला––यदि फिर यह नाम तुमने लिया! मुझे नन्द से प्रतिशोध ले लेने दो, फिर चाहे डीडी पीटना।

चाणक्य––( उसका हाथ हटाते हुए )––वह सुवासिनी नन्द की रंगशाला में है। मुझे पहचानते हो?