यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६१
तृतीय अंक
शक॰—नहीं तो।—(देखता है।)
चाणक्य—तुम्हारे प्रतिवेशी, सखा ब्राह्मण चणक का पुत्र विष्णुगुप्त। तुम्हारी दिलायी हुई जिसकी ब्राह्मणवृत्ति छीन ली गयी, जो तुम्हारा सहकारी जान कार निर्वासित कर दिया गया, मैं उसी चणक का पुत्र चाणक्य हूँ, जिसकी शिखा पकड़ कर राजसभा में खींची गयी, जो बन्दीगृह में मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था! मुझ पर विश्वास करोगे?
शक॰—(विचारता हुआ खड़ा हो जाता है)—करूँगा, जो तुम कहोगे वही करूँगा। किसी तरह प्रतिशोध चाहिए।
चाणक्य—तो चलो मेरी झोंपड़ी में, इस सुरंग को घास-फूस से ढँक दो।
[दोनों ढँक कर जाते हैं]