पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/१६३

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नन्द के राजमन्दिर का एक प्रकोष्ठ

नन्द—आज क्यों मेरा मन अनायास ही शंकित हो रहा है। कुछ नहीं...होगा कुछ।

[सेनापति मौर्य्य की स्त्री को साथ लिए हुए वररुचि का प्रवेश]

नन्द—कौन है यह स्त्री?

वररुचि—जय हो देव, यह सेनापति मौर्य्य की स्त्री है।

नन्द—क्या कहना चाहती है?

स्त्री—राजा प्रजा का पिता है। वही उसके अपराधओं को क्षमा करके सुधार सकता है। चन्द्रगुप्त बालक है, सम्राट्‌! उसके अपराध मगध से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, तब भी वह निर्वासित है। परन्तु सेनापति पर क्या अभियोग है? मैं असहाय मगध की प्रजा श्री-चरणों में निवेदन करती हूँ—मेरा पति छोड़ दिया जाय। पति और पुत्र दोनों से न वञ्चित की जाऊँ।

नन्द—रमणी! राजदण्ड पति और पुत्र के मोहजाल से सर्वथा स्वतंत्र है। षड्‌यन्त्रकारियों के लिए बहुत निष्ठुर है, निर्मम है! कठोर है! तुम लोग आग की ज्वाला से खेलने का फल भोगो। नन्द इन आँसू-भरी आँखों तथा अञ्चल पसार कर भिक्षा के अभिनय में नहीं भूलवायाजा सकता।

स्त्री—ठीक है महाराज! मैं ही भ्रम में थी। सेनापति मौर्य्य का ही तो यह अपराध है। जब कुसुमपुर की समस्त प्रजा विरुद्ध थी, जब जारज-पुत्र के रक्त-रँगे हाथों से सम्राट्‌ महापद्म की लीला शेष हुई थी,तभी सेनापति को चेतना चाहिए था। कृतघ्न के साथ उपकार किया है,यह उसे नहीं मालूम था।

नन्द—चुप दुष्ट! (उसका केश पकड़ कर खींचना चाहता है,वररुचि बीच में आकर रोकता है।)