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चन्द्रगुप्त
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पर्व॰—मुझे क्या आज्ञा है?

चाणक्य—कुछ चुने हुए अश्वारोहियों को साथ लेकर प्रस्तुत रहना। चन्द्रगुप्त जब भीतर से युद्ध प्रारम्भ करे, उस समय तुमको नगरद्वार पर आक्रमण करना होगा।

(गुफा का द्वार खुलना...मौर्य, मालविका, शकटार, वररुचि, पीछे-पीछे चन्द्रगुप्त की जननी का प्रवेश)

चाणक्य—आओ मौर्य्य!

मौर्य्य—हम लोगों के उद्धारकर्ता, आप ही महात्मा चाणक्य हैं?

माल॰—हाँ, यही हैं।

मौर्य्य—प्रणाम।

चाणक्य—शत्रु से प्रतिशोध लेने के लिए जियो सेनापति! नन्द के पापों की पूर्णता ने तुम्हारा उद्धार किया है। अब तुम्हारा अवसर है।

मौर्य्य—इन दुर्बल हड्डियों को अन्धकूप की भयानकता खटखटा रही है।

शकटार—और रक्तम गम्भीर बीभत्स दृश्य, हत्या का निष्ठुर आह्‌वान कर रहा है।

(चन्द्रगुप्त का प्रवेश, माता-पिता के चरण छूता है।)

चन्द्र॰—पिता! तुम्हारी यह दशा!! एक-एक पीड़ा की, प्रत्येक निष्ठुरता की गिनती होगी। मेरी माँ! उन सब का प्रतिकार होगा, प्रतिशोध लिया जायगा! ओ, मेरा जीवन व्यर्थ है! नन्द!

चाणक्य—चन्द्रगुप्त, सफलता का एक ही क्षण होता है। आवेश से और कर्तव्य से बहुत अन्तर है।

चन्द्रगुप्त—गुरुदेव आज्ञा दीजिए।

चाणक्य—देखो, उधर, नागरिक लोग आ रहे हैं। सम्भवतः यही अवसर है। तुम लोगों के भीतर जाने का और विद्रोह फैलाने का।

(नागरिकों का प्रवेश)