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चन्द्रगुप्त
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शक॰—हाँ, महापद्म के जारज पुत्र नन्द की—बधिक हिंस्र-पशु नन्द की—प्रतिहिंसा का लक्ष्य शकटार मैं ही हूँ!

सब नाग॰—हो चुका न्यायाधिकरण का ढोंग! जनता की शुभकामना करने की प्रतिज्ञा नष्ट हो गयी। अब नहीं, आज न्यायाधिकरण में पूछना होगा!

मौर्य्य—और मेरे लिए भी कुछ...

नाग॰—तुम...?

मौर्य्य—सेनापति मौर्य्य—जिसका तुम लोगों को पता ही न था।

नाग॰—आश्चर्य! हम लोग आज क्या स्वप्न देख रहे हैं? अभी लौटना चाहिए। चलिए आप लोग भी।

शक॰—परन्तु मेरी रक्षा का भार कौन लेता है?

(सब इधर-उधर देखने लगते हैं, चन्द्रगुप्त तन कर खड़ा हो जाता है।)

चन्द्र॰—मैं लेता हूँ। मैं उन सब पीड़ित, आघात-जर्जर, पददलित लोगों का संरक्षक हूँ, जो मगध की प्रजा हैं।

चाणक्य—साधु! चन्द्रगुप्त!

(सहसा सब उत्साहित हो जाते हैं, पर्वतेश्वर और चाणक्य तथा वररुचि को छोड़ कर सब जाते हैं।)

वररुचि—चाणक्य! यह क्या दावाग्नि फैला दी तुमने?

चाणक्य—उत्पीड़न की चिनगारी को अत्याचारी अपने ही अञ्चल में छिपाए रहता है। कात्यायन! तुमने अन्धकूप का सुख क्यों लिया?—कोई अपराध तुमने किया था?

वर॰—नन्द की भूल थी। उसे अब भी सुधारा जा सकता है। ब्राह्मण! क्षमानिधि! भूल जाओ!

चाणक्य—प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर हम-तुम साथ ही वैखानस होंगे, कात्यायन! शक्ति हो जाने दो, फिर क्षमा का विचार करना। चलो पर्वतेश्वर! सावधान!!

(सब का प्रस्थान)