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तृतीय अंक
 


नन्द—(तन कर)—तब रे मूर्खों! नन्द की निष्ठुरता! प्रतिहार! राजसिंहासन संकट में है! आओ, आज हमें प्रजा से लड़ना है!

[प्रतिहार प्रहरियों के साथ आगे बढ़ता है—कुछ युद्ध होने के साथ ही राजपक्ष के कुछ लोग मारे जाते हैं, और एक सैनिक आकर नगर के ऊपर आक्रमण होने की सूचना देता है। युद्ध करते-करते चन्द्रगुप्त नन्द को बन्दी बनाता है।]

[चाणक्य का प्रवेश]

चाणक्य—नन्द! शिखा खुली है। फिर खिंचवाने की इच्छा हुई है, इसीलिए आया हूँ। राजपद के अपवाद नन्द! आज तुम्हारा विचार होगा!

नन्द—तुम ब्राह्मण। मेरे टुकड़ों से पले हुए। दरिद्र! तुम मगध के सम्राट्‌ का विचार करोगे! तुम सब लुटेरे हो, डाकू हो! विप्लवी हो—अनार्य्य हो।

चाणक्य—(राजसिंहासन के पास जाकर)—नन्द! तुम्हारे ऊपर इतने अभियोग है—महापद्म की हत्या, शकटार को बन्दी करना—उसके सात पुत्रों को भूख से तड़पा कर मारना! सेनापति मौर्य्य की हत्या का उद्योग—उसकी स्त्री को और वररुचि को बन्दी बनाना, कितनी ही कुलीन कुमारियों का सतीत्व नाश—नगर-भर में व्यभिचार का स्रोत बहाना! ब्राह्मस्व और अनाथों की वृत्तियों का अपहरण! अन्त में सुवासिनी पर अत्याचार—शकटार की एकमात्र बची हुई सन्तान, सुवासिनी, जिसे तुम अपनी घृणित पाशव-वृत्ति का...!

नागरिक—(बीच में रोक कर हल्ला मचाते हुए)—पर्य्याप्त है। यह पिशाचलीला और सुनने की आवश्यकता नहीं, सब प्रमाण वहीं उपस्थित हैं।

चन्द्र॰—ठहरिए! (नन्द से) कुछ उत्तर देना चाहते हैं?

नन्द—कुछ नहीं।

("वध करो!" "हत्या करो!" का आतंक फैलता है।)